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ये दस्य॑वःपि॒तृषु॒ प्रवि॑ष्टा ज्ञा॒तिमु॑खा अहु॒ताद॒श्चर॑न्ति। प॑रा॒पुरो॑ नि॒पुरो॒ येभर॑न्त्य॒ग्निष्टान॒स्मात्प्र ध॑माति य॒ज्ञात् ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ये । दस्यव: । पितृषु । प्रऽविष्टा: । ज्ञातिऽमुखा: । अहुतऽअद: । चरन्ति । पराऽपुर: । निऽपुर:। ये । भरन्ति । अग्नि: । तान् । अस्मात् । प्र । धमाति । यज्ञात् ॥२.२८॥

अथर्ववेद » काण्ड:18» सूक्त:2» पर्यायः:0» मन्त्र:28


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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी

मनुष्यों का पितरों के साथ कर्त्तव्य का उपदेश।

पदार्थान्वयभाषाः - (ये) जो (ज्ञातिमुखाः)बन्धुओं के समान मुखवाले [छल से हित बोलनेवाले], (अहुतादः) बिना दिया हुआखानेवाले (दस्यवः) डाकू लोग (पितृषु) पितरों [रक्षक महात्माओं] में (प्रविष्टाः)प्रविष्ट होकर (चरन्ति) विचरते हैं। और (ये) जो [दुराचारी] (परापुरः) उलटेपन सेपालन स्वभावों को और (निपुरः) नीचपन से अगुआ होने की क्रियाओं को (भरन्ति) धारणकरते हैं, (अग्निः) ज्ञानवान् पुरुष (तान्) उन [दुष्टों] को (अस्मात्) इस (यज्ञात्) पूजास्थान से (प्र धमाति) दूर भेजे ॥२८॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य ऊपर से मीठाबोलकर दूसरों के पदार्थों को खा जावें और शिष्ट पुरुषों में मिलकर छल करें।विद्वान् राजा आदि प्रधान पुरुष उन अन्यायियों को दण्ड देकर निकाल देवे ॥२८॥यहमन्त्र कुछ भेद से यजुर्वेद में है−२।३० ॥
टिप्पणी: २८−(ये) (दस्यवः)महासाहसिकाश्चौरादयः (पितृषु) पालकमहात्मसु (प्रविष्टाः) (ज्ञातिमुखाः)ज्ञातीनां मुखं वचनमिव वचनं येषां ते (अहुतादः) अहुतस्य अदत्तस्य भक्षकाः (चरन्ति) विचरन्ति (परापुरः) परा+पॄ पालनपूरणयोः-क्विप्। उदोष्ठ्यपूर्वस्य। पा०७।१।१०२। इत्युत्त्वम्। परा प्रातिकूल्येन पालनस्वभावान् (निपुरः) नि+पुरअग्रगतौ-क्विप्। निकृष्टभावेन अग्रगमनक्रियाः (ये) (भरन्ति) धरन्ति (अग्निः)ज्ञानवान् पुरुषः (तान्) दुष्टान् (अस्मात्) (प्रधमाति) धमतिर्गतिकर्मा-निघ०२।१४, वधकर्मा २।१९। बहिर्गमयेत् (यज्ञात्) पूजास्थानात् ॥