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मा त्वा॑ वृ॒क्षःसं बा॑धिष्ट॒ मा दे॒वी पृ॑थि॒वी म॒ही। लो॒कं पि॒तृषु॑ वि॒त्त्वैध॑स्व य॒मरा॑जसु॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

मा । त्वा । वृक्ष: । सम् । बाधिष्ट । मा । देवी । पृथिवी । मही । लोकम् । पितृषु । वित्त्वा । एधस्व । यमराजऽसु ॥२.२५॥

अथर्ववेद » काण्ड:18» सूक्त:2» पर्यायः:0» मन्त्र:25


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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी

मनुष्यों का पितरों के साथ कर्त्तव्य का उपदेश।

पदार्थान्वयभाषाः - [हे मनुष्य !] (त्वा)तुझे (मा) न तो (वृक्षः) सेवनीय संसार और (मा) न (देवी) चलनेवाली (मही) बड़ी (पृथिवी) पृथिवी (सं बाधिष्ट) कुछ बाधा देवे। (यमराजसु) यम [न्यायकारी परमात्मा]को राजा माननेवाले (पितृषु) पितरों [रक्षक महात्माओं] में (लोकम्) स्थान (वित्त्वा) पाकर (एधस्व) तू बढ़ ॥२५॥
भावार्थभाषाः - पुरुषार्थी मनुष्यसंसार में विघ्नों को हटा, रत्नों की खानि पृथिवी से उपकार लेकर बड़े लोगों मेंपद पाकर बढ़ती करें ॥२५॥
टिप्पणी: २५−(मा बाधिष्ट) बाधृ विलोडने-लुङ्। मा पीडयेत् (त्वा) (वृक्षः) वृक्ष वरणे-क प्रत्ययः। सेवनीयः। संसारः (सम्) सम्यक् (मा) (देवी) दिवुगतौ-अच्। गतिमती (पृथिवी) (मही) विशाला (लोकम्) स्थानम् (पितृषु) पालकमहात्मसु (वित्त्वा) लब्ध्वा (एधस्व) वर्धस्व (यमराजसु) यमो न्यायकारी परमात्मा राजायेषां तेषु ॥