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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
मनुष्यों का पितरों के साथ कर्त्तव्य का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - [हे विद्वान् !] (आयुः) [तेरे] जीवन को (आयुषे) [अपने] जीवन के लिये, (क्रत्वे) बुद्धि वा कर्मके लिये, (दक्षाय) बल के लिये और (जीवसे) प्राणधारण [पराक्रम] के लिये (उत्)उत्तमता से (अह्वम्) मैंने बुलाया है। (ते) तेरा (मनः) मन (स्वान्) अपने लोगोंमें (गच्छतु) जावे, (अध) और तू (पितॄन्) पितरों [रक्षक महात्माओं] को (उप) आदरसे (द्रव) दौड़ जा ॥२३॥
भावार्थभाषाः - मनुष्य विद्वानों केसत्सङ्ग से अपना आचरण, अपना ज्ञान, अपना शारीरिक और आत्मिक बल ठीक रख कर माता-पिता आदि और सब महात्माओं के सदा कृतज्ञ रहें ॥२३॥
टिप्पणी: २३−(उत्) उत्तमतया (अह्वम्)आहूतवानस्मि (आयुः) तव जीवनम् (आयुषे) स्वजीवनहिताय (क्रत्वे) क्रतुःकर्मनाम-निघ० २।१, प्रज्ञानाम ३।९। क्रतवे। प्रज्ञायै, कर्मणे (दक्षाय) बलाय (जीवसे) प्राणधारणाय। पराक्रमाय (स्वान्) स्वकीयान्। ज्ञातीन् (गच्छतु)प्राप्नोतु (ते) तव (मनः) चित्तम् (अध) अपि च (पितॄन्) पालकान् महात्मनः (उप)आदरेण (द्रव) शीघ्रं गच्छ ॥