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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
मनुष्यों का पितरों के साथ कर्त्तव्य का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - [हे मनुष्य !] (उदवाहाः) जल पहुँचानेवाले, (उदप्रुतः) जल में चलनेवाले (मरुतः) पवनरूपविद्वान् लोग (त्वा) तुझे (उत् वहन्तु) ऊँचा पहुँचावें। और (अजेन) अजन्मेपरमात्मा के साथ (वर्षेण) वृष्टि से (शीतम्) शीतलता (कृण्वन्तः) करते हुए वे [तुझको] (उक्षन्तु) बढ़ावें−(बाल् इति) यही बल है ॥२२॥
भावार्थभाषाः - जैसे पवन अपने झकोरोंसे मेघों को चला वृष्टि करके ताप हटाकर संसार को सुख पहुँचाता है, वैसे हीविद्वान् लोग अज्ञान मिटा शान्ति के साथ मनुष्यों को ऊँचा करके शक्तिमान् करें॥२२॥
टिप्पणी: २२−(उत्) ऊर्ध्वम् (त्वा) (वहन्तु) प्रापयन्तु (मरुतः) मरुतोऋत्विङ्नाम-निघ० ३।१८। पवना इव विद्वांसः (उदवाहाः) कर्मण्यण्। पा० ३।२।१।उदक+वह प्रापणे-अण्, उदकस्य उदभावः। जलस्य वोढारः प्रापयितारः (उदप्रुतः) प्रुङ्गतौ-क्विप्। जले गन्तारः (अजेन) अजन्मना परमात्मना (कृण्वन्तः) कुर्वन्तः (शीतम्) शैत्यम् (वर्षेण) वृष्टिजलेन (उक्षन्तु) उक्षण उक्षतेर्वृद्धिकर्मणः-निरु०१२।९। वर्धयन्तु (बाल्) क्विब् वचिप्रच्छिश्रिस्रुद्रुप्रुज्वांदीर्घोऽसम्प्रसारणं च। उ० २।५७। बल दाने जीवने वधे च-क्विप्, दीर्घश्च। बलम् (इति) एवम् ॥