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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
विद्वानों के सत्सङ्ग से बढ़ती का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (ये) जो [विद्वान्] (तपसा) तप [ब्रह्मचर्यसेवन और वेदाध्ययन] से (अनाधृष्याः) नहीं दबनेवाले हैं और (ये) जिन्होंने (तपसा) तप से (स्वः) स्वर्ग [आनन्द पद] (ययुः) पाया है। और (ये)जिन्होंने (तपः) तप [ब्रह्मचर्यसेवन और वेदाध्ययन] को (महः) अपना महत्त्व (चक्रिरे) बनाया है, (तान्) उन [महात्माओं] को (चित्) सत्कार से (एव) ही (अपि)अवश्य (गच्छतात्) तू प्राप्त हो ॥१६॥
भावार्थभाषाः - जो महर्षि ब्रह्मचर्यसेवन और वेदाध्ययन को अपना महत्त्व समझ कर आनन्द पाते हैं, मनुष्य उन से शिक्षालेकर ब्रह्मचर्यसेवन और वेदाध्ययन से महान् होकर सुखी होवें ॥१६॥
टिप्पणी: १६−(तपसा)ब्रह्मचर्यसेवनेन वेदाध्ययनेन च (ये) महात्मानः (अनाधृष्याः) धर्षितुमशक्याः।दुर्धर्षाः। अहिंसनीयाः (तपसा) (ये) (स्वः) सुखपदम् (ययुः) प्रापुः (तपः)ब्रह्मचर्यसेवनं वेदाध्ययनं च (ये) (चक्रिरे) कृतवन्तः (महः) स्वमहत्त्वम्।अन्यत् पूर्ववत्-म० १४ ॥