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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
आलस्यादिदोष के त्याग के लिये उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (स्वप्न) हे स्वप्न ! [आलस्य] (तम्) उस (त्वा) तुझको (तथा) वैसा ही (सम्) अच्छे प्रकार (विद्म) हमजानते हैं, (सः) सो तू (स्वप्न) हे स्वप्न ! [आलस्य] (नः) हमें (दुःष्वप्न्यात्)बुरी निद्रा में उठे कुविचार से (पाहि) बचा ॥३॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! कुपश्यआदि करने से गठिया आदि रोग होते हैं, गठिया आदि से आलस्य और उससे अनेकविपत्तियाँ मृत्यु आदि होती हैं। इससे सब लोग दुःखों के कारण अति निद्रा आदि कोखोजकर निकालें और केवल परिश्रम की निवृत्ति के लिये ही उचित निद्रा का आश्रयलेकर सदा सचेत रहें ॥१-३॥
टिप्पणी: ३−(तम्) तादृशम् (त्वा) त्वाम् (स्वप्न) (तथा) तेनप्रकारेण (सम्) सम्यक् (सः) स त्वम् (नः) अस्मान् (दुःष्वप्न्यात्)दुःस्वप्न-यत्। दुष्टस्वप्नेषु भवात् कुविचारात् (पाहि) रक्ष ॥