बार पढ़ा गया
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
वेदवाणी की महिमा का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (यः) जो [मनुष्य] (शतौदनाम्) सेकड़ों प्रकार सींचनेवाली [वेदवाणी] को (पचति) पक्का [दृढ़] करता है, (सः) वह (कामप्रेण) कामनाएँ पूर्ण करनेहारे व्यवहार से (कल्पते) समर्थ होता है। (हि) क्योंकि (अस्य) इस [मनुष्य] के (सर्वे) सब (ऋत्विजः) ऋत्विक् लोग [ऋतु-ऋतु में यज्ञ करनेवाले] (प्रीताः) सन्तुष्ट होकर (यथायथम्) जैसे का तैसा (यन्ति) पाते हैं ॥४॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य वेदविद्या को हृदय में दृढ़ करके व्यवहार करता है, वह अपनी शुभ कामनाएँ सिद्ध करके सब यज्ञकर्ताओं को प्रसन्न रखता है ॥४॥
टिप्पणी: ४−(यः) (शतौदनाम्) बहुप्रकारसेचिकां वेदवाणीम् (पचति) पक्वां दृढां करोति (कामप्रेण) काम+प्रा पूरणे-क। शुभमनोरथपूरकेण व्यवहारेण (सः) (कल्पते) समर्थो भवति (प्रीताः) सन्तुष्टाः (हि) यस्मात् कारणात् (अस्य) पुरुषस्य (ऋत्विजः) अ० ६।२।१। ऋतु+यजेः क्विन्। ऋतौ ऋतौ याजकाः (सर्वे) (यन्ति) प्राप्नुवन्ति (यथायथम्) यथायोग्यम् ॥