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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
परमात्मा और जीवात्मा के स्वरूप का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (वसूनाम्) निवासों [पृथिवी आदि लोकों] का (निवेशनः) ठहरानेवाला और (संगमनः) चलानेवाला, (सत्यधर्मा) सत्य धर्मवाला [परमेश्वर] (धनानाम्) धनों के लिये [हमारे] (समरे) संग्राम में (देवः) प्रकाशमान (सविता इव) चलानेवाले सूर्य के समान और (इन्द्रः न) वायु के समान (तस्थौ) स्थित हुआ ॥४२॥
भावार्थभाषाः - हम लोग सङ्ग्राम अर्थात् कठिनाई के समय सत्यस्वभाव, सर्वशक्तिमान् जगदीश्वर का ध्यान करते हुए सूर्यसमान प्रतापी और वायुसमान शीघ्रगामी होकर यथावत् प्रयत्न करें ॥४२॥ यह मन्त्र भेद से ऋग्वेद १०।१३९।३ और यजु० १२।६६। में है ॥
टिप्पणी: ४२−(निवेशनः) निवेशयिता स्थापयिता (संगमनः) संगमयिता। संचालकः (वसूनाम्) निवासानां पृथिव्यादिलोकानाम् (देवः) देदीप्यमानः (इव) यथा (सविता) लोकप्रेरकः सूर्यः (सत्यधर्मा) यथार्थन्यायः। अवितथाचारः। अविकृतस्वभावः (इन्द्रः) वायुः (न) इव (तस्थौ) स्थितवान् (समरे) सङ्ग्रामे (धनानाम्) चतुर्थ्यर्थे बहुलं छन्दसि। पा० ३।२।६२। इति षष्ठी। धनानां प्राप्तये ॥