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अ॒प्स्वासीन्मात॒रिश्वा॒ प्रवि॑ष्टः॒ प्रवि॑ष्टा दे॒वाः स॑लि॒लान्या॑सन्। बृ॒हन्ह॑ तस्थौ॒ रज॑सो वि॒मानः॒ पव॑मानो ह॒रित॒ आ वि॑वेश ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अप्ऽसु । आसीत् । मातरिश्वा । प्रऽविष्ट: । प्रऽविष्टा: । देवा: । सलिलान‍ि । आसन् । बृहन् । ह । तस्थौ । रजस: । विऽमान: । पवमान: । हरित: । आ । विवेश ॥८.४०॥

अथर्ववेद » काण्ड:10» सूक्त:8» पर्यायः:0» मन्त्र:40


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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी

परमात्मा और जीवात्मा के स्वरूप का उपदेश।

पदार्थान्वयभाषाः - (मातरिश्वा) आकाश में चलनेवाला [वायु वा सूत्रात्मा] (अप्सु) अन्तरिक्ष [वा तन्मात्राओं] में (प्रविष्टः) प्रवेश किये हुए (आसीत्) था, (देवः) [अन्य] दिव्य पदार्थ (सलिलानि) समुद्रों में [अगम्य कारणों में] (प्रविष्टाः) प्रवेश किये हुए (आसन्) थे। (रजसः) संसार का (बृहन् ह) बड़ा ही (विमानः) विविध प्रकार नापनेवाला [वि विमानरूप आधार, परमेश्वर] (तस्थौ) खड़ा था और (पवमानः) शुद्धि करनेवाले [परमेश्वर] ने (हरितः) सब दिशाओं में (आ विवेश) प्रवेश किया था ॥४०॥
भावार्थभाषाः - प्रलय में वायु और अन्य सब पदार्थ अपने-अपने कारणों में लीन थे, उस समय एक ही परमेश्वर का अनुभव होता था ॥४०॥ मन्त्र का तीसरा पाद ऊपर मन्त्र ३ में आया है ॥
टिप्पणी: ४०−(अप्सु) म० ३५। अन्तरिक्षे तन्मात्रासु वा (आसीत्) (मातरिश्वा) म० ३९। वायुः सूत्रात्मा वा (प्रविष्टः) (प्रविष्टाः) (देवाः) अन्ये दिव्यपदार्थाः (सलिलानि) समुद्रान्। अगम्यकारणानि (आसन्) (बृहन्) महान् (ह) एव (तस्थौ) स्थितवान् (रजसः) लोकस्य (विमानः) विशेषेण मानकर्ता। विमानतुल्याधारः परमेश्वरः (पवमानः) संशोधकः परमात्मा (हरितः) पूर्वादिदिशाः-निघ० १।६ (आ विवेश) प्रविष्टवान् ॥