परमात्मा और जीवात्मा के स्वरूप का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (एषाम्) इन [दिव्य पदार्थों] में से (एकः) एक [जैसे अग्नि] (इमाम्) इस (पृथिवीम्) पृथिवी को (वस्ते) ढकता है, (एकः) एक [जैसे वायु] ने (अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्ष [मध्यलोक] को (परि बभूव) घेर लिया है। (येषाम्) इन में (यः) जो (विधर्ता) विविध प्रकार धारण करनेवाला है [जैसे वायु], वह (दिवम्) प्रकाश को (ददते) देता है, (एकः) कोई एक [दिव्य पदार्थ] (विश्वाः) सब (आशाः प्रति) दिशाओं में (रक्षन्ति) रक्षा करते हैं ॥३६॥
भावार्थभाषाः - यह गत मन्त्र का उत्तर है। यद्यपि विशेष करके अग्नि पृथिवी का, वायु अन्तरिक्ष का और सूर्य प्रकाश का रक्षक है। तथापि यह अन्य सब चन्द्र नक्षत्र आदि लोकों के परस्पर रक्षक हैं ॥३६॥ भगवान् यास्क मुनि ने निरु० ७।५। में लिखा है−“निरुक्तज्ञाता मानते हैं कि तीन ही देव हैं, अग्नि पृथिवीस्थानी, वायु वा इन्द्र अन्तरिक्षस्थानी, सूर्य द्युस्थानी। उनकी बड़ी महिमा के कारण एक-एक के बहुत नाम होते हैं। अथवा कर्म के अलग-अलग होने से जैसे होता, अध्वर्यु, ब्रह्मा, उद्गाता यह एक के होने से [एक ही के बहुत नाम हैं] अथवा वे अलग-अलग होवें, क्योंकि [उनकी] अलग-अलग स्तुतियाँ हैं, वैसे ही [अलग-अलग] नाम हैं ॥