ए॒षा स॒नत्नी॒ सन॑मे॒व जा॒तैषा पु॑रा॒णी परि॒ सर्वं॑ बभूव। म॒ही दे॒व्युषसो॑ विभा॒ती सैके॑नैकेन मिष॒ता वि च॑ष्टे ॥
पद पाठ
एषा । सनत्नी । सनम् । एव । जाता । एषा । पुराणी । परि । सर्वम् । बभूव । मही । देवी । उषस: । विऽभाती । सा । एकेनऽएकेन । मिषता । वि । चष्टे ॥८.३०॥
अथर्ववेद » काण्ड:10» सूक्त:8» पर्यायः:0» मन्त्र:30
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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
परमात्मा और जीवात्मा के स्वरूप का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (एषा) यह [शक्ति अर्थात् परमेश्वर] (सनम् एव) सदा से ही (सनत्नी) भक्तों की नेत्री [आगे बढ़ानेवाली] (जाता) प्रसिद्ध है, (एषा) इस (पुराणी) पुरानी से (सर्वम्) सब [जगत्] को (परिबभूव) घेर लिया है। (उषसः) प्रभात वेलाओं को (विभाती) प्रकाशित करनेवाली (सा) वह (मही) बड़ी (देवी) देवी [दिव्य शक्ति] (एकेनैकेन) एक-एक (मिषता) पलक मारने से [सबको] (वि चष्टे) देखती रहती है ॥३०॥
भावार्थभाषाः - महान् शक्ति परमात्मा सर्वव्यापक और सर्वप्रकाशक होकर अपने भक्तों की बढ़ती करता और समस्त संसार की सुधि रखता है ॥३०॥
टिप्पणी: ३०−(एषा) प्रसिद्धा (सनत्नी) वर्तमाने पृषद्बृहन्महज्०। उ० २।८४। षण संभक्तौ-अति+णीञ् प्रापणे ड, ङीप्। सनतां भक्तानां नेत्री (सनम्) सदा (एव) (जाता) प्रसिद्धा (एषा) (पुराणी) अ० १०।७।२६। पुराण ङीप्। पुरातनी (सर्वम्) जगत् (परि बभूव) व्याप (मही) महती (देवी) दिव्यगुणा (उषसः) प्रभातवेलाः (विभाती) अन्तर्गतण्यर्थः। विभापयन्ती। प्रकाशयन्ती (सा) शक्तिः (एकेनैकेन) प्रत्येकेन (मिषता) वर्तमाने पृषद्बृहन्महज्०। उ० २।८४। मिष स्पर्धायाम्-अति। निमिषेण। चक्षुर्मुद्रेण (वि चष्टे) विशेषेण पश्यति ॥