बार पढ़ा गया
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
परमात्मा और जीवात्मा के स्वरूप का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (कुम्भेन) घड़े से (उदकम्) जल को (ऊर्ध्वम्) ऊपर (भरन्तम्) भरते हुए (उदहार्यम्) जल लानेवाले को (इव) जैसे, [उस परमेश्वर को] (सर्वे) सब लोग (चक्षुषा) आँख से (पश्यन्ति) देखते हैं, (सर्वे) (मनसा) मन से (न) नहीं (विदुः) जानते हैं ॥१४॥
भावार्थभाषाः - प्रायः मनुष्य परमेश्वर को उसकी स्थूल रचनाओं से देखते हैं, जैसे कूप में से घड़े द्वारा जल खींचनेवाले को। परन्तु विवेकी पुरुष उस उन्नतिकर्ता ईश्वर को उसकी सूक्ष्म रचनाओं से अनुभव करते हैं ॥१४॥
टिप्पणी: १४−(ऊर्ध्वम्) (भरन्तम्) हरन्तम्। प्रापयन्तम् (उदकम्) जलम् (कुम्भेन) घटेन (इव) यथा (उदहार्यम्) हृञ् प्रापणे-ण्यत्। कृत्यल्युटो बहुलम्। पा० ३।३।११३। इति कर्तरि प्रत्ययः। जलहारम्। कहारम् (पश्यन्ति) सर्वे (चक्षुषा) नेत्रेण (न) निषेधे (सर्वे) (मनसा) मननेन (विदुः) जानन्ति ॥