देवता: स्कन्धः, आत्मा
ऋषि: अथर्वा, क्षुद्रः
छन्द: एकावसाना पञ्चपदा निचृत्पदपङ्क्तिर्द्विपदार्च्यनुष्टुप्
स्वर: सर्वाधारवर्णन सूक्त
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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
ब्रह्म के स्वरूप के विचार का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (इमे) इन (मयूखाः) ज्ञानप्रकाशों ने (दिवम्) आकाश [ब्रह्माण्ड] को (उप तस्तभुः) धारण किया था और (तसराणि) विस्तारों को (वातवे) पाने के लिये (सामानि) मोक्षज्ञानों को (चक्रुः) बनाया था ॥४४॥
भावार्थभाषाः - सूक्तोक्त ईश्वरीय ज्ञानों द्वारा यह सब संसार स्थित है, और इन्हीं की पूर्ण प्राप्ति से मनुष्य मोक्षसुख द्वारा अपना विस्तार करते हैं ॥४४॥
टिप्पणी: ४४−(इमे) सूक्तोक्ताः (मयूखाः) माङ ऊखो मय च। उ० ५।२५। माङ् माने ऊख, धोतोर्मयादेशः, यद्वा, मय गतौ ऊख। मयूखाः, रश्मिनाम-निघ० १।५। ज्ञानप्रकाशाः (उप) (तस्तभुः) नलोपः। तस्तम्भुः। दधुः (दिवम्) आकाशम्। तत्रत्यब्रह्माण्डम् (सामानि) म० २०। मोक्षज्ञानानि (चक्रुः) कृतवन्तः (तसराणि) तन्यृषिभ्यां क्सरन्। उ० ३।७५। तनु विस्तारे क्सरन्, कित्त्वादनुनासिकलोपः। विस्तारान् (वातवे) तुमर्थे सेसेनसे०। पा० ३।४।९। वा गतिगन्धनयोः-तवेन्। प्राप्तुम् ॥