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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
ब्रह्म के स्वरूप के विचार का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (यः) जो [परमेश्वर] (सलिले) अन्तरिक्ष में (तिष्ठन्तम्) ठहरे हुए (हिरण्ययम्) तेजोमय (वेतसम्) परस्पर बुने हुए [संसार] को (वेद) जानता है, (सः वै) वह ही (गुह्यः) गुप्त (प्रजापतिः) प्रजापालक है ॥४१॥
भावार्थभाषाः - जो परमात्मा समस्त संसार का पालन करता है, वह सर्वज्ञ और सर्वान्तर्यामी है ॥४१॥
टिप्पणी: ४१−(यः) परमेश्वरः (वेतसम्) वेञस्तुट् च। उ० ३।११८। वेञ् तन्तुसन्ताने यद्वा वी गतिव्याप्तिप्रजनकान्त्यसनखादनेषु-असच् तुट् च। ऊतं परस्परं स्यूतं संसारम् (हिरण्ययम्) तेजोमयम् (तिष्ठन्तम्) वर्तमानम् (सलिले) म० ३८। अन्तरिक्षे (वेद) जानाति (सः) (वै) एव (गुह्यः) गुह संवरणे-क्यप्। गुहायां स्थितः। गुप्तः (प्रजापतिः) प्रजापालकः परमेश्वरः ॥