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स्क॒म्भो दा॑धार॒ द्यावा॑पृथि॒वी उ॒भे इ॒मे स्क॒म्भो दा॑धारो॒र्वन्तरि॑क्षम्। स्क॒म्भो दा॑धार प्र॒दिशः॒ षडु॒र्वीः स्क॒म्भ इ॒दं विश्वं॒ भुव॑न॒मा वि॑वेश ॥

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पद पाठ

स्कम्भ: । दाधार । द्यावापृथिवी इति । उभे इति । इमे इति । स्कम्भ: । दाधार । उरु । अन्तरिक्षम् । स्कम्भ: । दाधार । प्रऽदिश: । षट् । उर्वी: । स्कम्भे । इदम् । विश्वम् । भुवनम् । आ । विवेश ॥७.३५॥

अथर्ववेद » काण्ड:10» सूक्त:7» पर्यायः:0» मन्त्र:35


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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी

ब्रह्म के स्वरूप के विचार का उपदेश।

पदार्थान्वयभाषाः - (स्कम्भः) स्कम्भ [धारण करनेवाले परमेश्वर] ने (इमे उभे) इन दोनों (द्यावापृथिवी) सूर्य और पृथिवी को (दाधार) धारण किया था, (स्कम्भः) स्कम्भ ने (उरु) विस्तृत (अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्ष को (दाधार) धारण किया। (स्कम्भः) स्कम्भ ने (षट्) छह [पूर्वादि चार और एक ऊपर और एक नीचे की] (उर्वीः) विस्तृत (प्रदिशः) दिशाओं को (दाधार) धारण किया, (स्कम्भे) स्कम्भ में (इदम्) यह (विश्वम्) सब (भुवनम्) सत्ता मात्र [जगत्] (आ) सब ओर से (विवेश) प्रविष्ट हुआ है ॥३५॥
भावार्थभाषाः - इस सूर्य, पृथिवी, आदि जगत् को परमेश्वर रचकर धारण करता है और यह सब संसार उसके बीच व्याप्त है ॥३५॥
टिप्पणी: ३५−(स्कम्भः) सर्वधारकः परमेश्वरः (दाधार) धृतवान् (द्यावापृथिवी) सूर्यभूलोकौ (उभे) (इमे) (उरु) विस्तृतम् (अन्तरिक्षम्) मध्यलोकम् (प्रदिशः) पूर्वादिचतस्रो दिशा उच्चनीचो च द्वे (षट्) (उर्वीः) विस्तृताः (इदम्) दृश्यमानम् (विश्वम्) सर्वम् (भुवनम्) अस्तित्वम्। जगत् (आ) समन्तात् (विवेश) प्रविष्टवान्। अन्यत् पूर्ववत् ॥