ब्रह्म के स्वरूप के विचार का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - वह [मनुष्य] (सूर्यात्) सूर्य से (पुरा) पहिले और (उषसः) उषा [प्रभात] से (पुरा) पहिले [वर्तमान] (नाम) एक नाम [परमेश्वर] को (नाम्ना) दूसरे नाम [इन्द्र, स्कम्भ, अज आदि] से (जोहवीति) पुकारता रहता है। (यत्) क्योंकि (अजः) अजन्मा [परमेश्वर] (प्रथमम्) पहिले ही पहिले (संबभूव) शक्तिमान् हुआ, (सः) उस ने (ह) ही (तत्) वह (स्वराज्यम्) स्वराज्य [स्वतन्त्र राज्य] (इयाय) पाया, (यस्मात्) जिस [स्वराज्य] से (परम्) बढ़कर (अन्यत्) दूसरा (भूतम्) द्रव्य (न अस्ति) नहीं है ॥३१॥
भावार्थभाषाः - परमेश्वर कार्यरूप काल और उस के अवयवों के पहिले सृष्टि के आदि में प्रलय में भी वर्तमान था। गुण कर्म स्वभाव के अनुसार उसके अनन्त नाम हैं। वह अपनी सर्वशक्तिमत्ता से अनन्यजित् स्वराज्य करता है। उसी की उपासना सब मनुष्य करें ॥३१॥