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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
ब्रह्म के स्वरूप के विचार का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (यत्र) जहाँ [जिस काल में] [कार्यरूप जगत् को] (प्रजनयन्) उत्पन्न करते हुए (स्कम्भः) स्कम्भ [धारण करनेवाले परमात्मा] ने (पुराणम्) पुराने [कारण] को (व्यवर्तयत्) चक्राकार घुमाया, (तत्) उस (पुराणम्) पुराने [कारण] को (स्कम्भस्य) स्कम्भ [धारण करनेवाले परमेश्वर] का (एकम् अङ्गम्) एक अङ्ग वे [तत्त्ववेत्ता] (अनुसंविदुः) पूर्ण रीति से जानते हैं ॥२६॥
भावार्थभाषाः - कारणरूप पदार्थ कार्यरूप जगत् से पुरातन है। उस कारणरूप पदार्थ को विविध प्रकार चेष्टा देकर उसके जिस अङ्ग से सब जगत् रचा गया है, वह परमात्मा के सामर्थ्य का छोटा अंश है ॥२६॥
टिप्पणी: २६−(यत्र) यस्मिन् काले (स्कम्भः) सर्वधारकः परमेश्वरः (प्रजनयन्) संसारमुत्पादयन् (पुराणम्) सायंचिरंप्राह्णेप्रगे०। पा० ४।३।२३। पुरा-ट्यु। तुडभावः। यद्वा, पुरा+णीञ् प्रापणे−ड, णत्वम्। पुरातनं कारणम् (व्यवर्तयत्) चक्राकारेण वर्तनमकारयत् (अनुसंविदुः) अनुसन्धानेन यथावत् जानन्ति ॥