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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
ब्रह्म के स्वरूप के विचार का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (जनाः) पामर जन (प्रतिष्ठन्तीम्) फैलती हुई (असच्छाखाम्) असत् [अनित्य कार्यरूप जगत्] की व्याप्ति को (परमम् इव) परम उत्कृष्ट पदार्थ के समान (विदुः) जानते हैं। (उतो) और (ये) जो (अवरे) पीछे होनेवाले, [कार्यरूप जगत्] में (सत्) सत् [नित्य कारण] को (मन्यन्ते) मानते हैं, वे [लोग] (ते) तेरी (शाखाम्) व्याप्ति को (उपासते) भजते हैं ॥२१॥
भावार्थभाषाः - अज्ञानी मनुष्य कार्यरूप संसार को परम अवधि मानते हैं, परन्तु ज्ञानी मनुष्य कार्यरूप जगत् में कारण को खोजकर आदि कारण परमात्मा की व्याप्ति को साक्षात्कार करते हैं ॥२१॥
टिप्पणी: २१−(असच्छाखाम्) अनित्यस्य कार्यरूपजगतो व्याप्तिम् (प्रतिष्ठन्तीम्। प्रकर्षेण विस्तारेण वर्तमानाम् (परमम्) उत्कृष्टमवधिम् (इव) यथा (जनाः) पामरलोकाः (विदुः) जानन्ति (उतो) अपि च (सत्) नित्यं कारणम् (मन्यन्ते) जानन्ति (अवरे) पूर्वादिभ्यो नवभ्यो वा। पा० ७।१।१६। स्मिन् इत्यस्याभावः। पश्चाद्वर्तिनि काले कार्यरूपजगति (ये) विद्वांसः (ते) तव, परमेश्वरस्य (शाखाम्) शाखृ व्याप्तौ-अच्, टाप्। व्याप्तिम् (उपासते) भजन्ते ॥