ब्रह्म के स्वरूप के विचार का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (यस्मात्) जिस से [प्राप्त करके] (ऋचः) ऋग् मन्त्रों [स्तुतिविद्याओं] को (अप-अतक्षन्) उन्होंने [ऋषियों ने] सूक्ष्म किया [भले प्रकार विचारा] (यस्मात्) जिससे [प्राप्त करके] (यजुः) यजुर्ज्ञान [सत्कर्मों के बोध] को (अप-अकषन्) उन्होंने कसा अर्थात् कसौटी पर रक्खा। (सामानि) मोक्षविद्याएँ (यस्य) जिस के (लोमानि) रोम [समान व्यापक] हैं और (अथर्व-अङ्गिरसः) अथर्वमन्त्र [निश्चल ब्रह्म के ज्ञान] (मुखम्) मुख [तुल्य हैं], (सः) वह (कतमः स्वित्) कौन सा (एव) निश्चय करके है ? [उत्तर] (तम्) उसको (स्कम्भम्) स्कम्भ [धारण करनेवाला परमात्मा] (ब्रूहि) तू कह ॥२०॥
भावार्थभाषाः - ऋषियों ने निश्चय किया है कि ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद ईश्वरकृत और समस्त संसार के कल्याणकारक हैं ॥२०॥ यह मन्त्र महर्षिदयानन्दकृत ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका पृष्ठ ९। में व्याख्यात है ॥