परा॑ शृणीहि॒ तप॑सा यातु॒धाना॒न्परा॑ग्ने॒ रक्षो॒ हर॑सा शृणीहि। परा॑र्चिषा॒ मूर॑देवाञ्छृणीहि॒ परा॑सु॒तृपः॒ शोशु॑चतः शृणीहि ॥
पद पाठ
परा । शृणीहि । तपसा । यातुऽधानान् । परा । अग्ने । रक्ष: । हरसा । शृणीहि । परा । अर्चिषा । मूरऽदेवान् । शृणीहि । परा । असुऽतृप: । शोशुचत: । शृणीहि ॥५.४९॥
अथर्ववेद » काण्ड:10» सूक्त:5» पर्यायः:0» मन्त्र:49
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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
शत्रुओं के नाश का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (अग्ने) हे अग्नि [समान तेजस्वी राजन् !] (तपसा) अपने तप [ऐश्वर्य वा प्रताप] से (यातुधानान्) दुःखदायिओं को (परा शृणीहि) कुचल डाल, (रक्षः) राक्षसों [दुराचारियों वा रोगों] को (हरसा) अपने बल से (परा शृणीहि) मिटा दे। (अर्चिषा) अपने तेज से (मूरदेवान्) मूढ़ [निर्बुद्धि] व्यवहारवालों को (परा शृणीहि) नाश कर दे, (शोशुचतः) अत्यन्त दमकते हुए, (असुतृपः) [दूसरों को] प्राणों से तृप्त होनेवालों को (परा शृणीहि) चूर-चूर कर दे ॥४९॥
भावार्थभाषाः - राजा अत्यन्त क्लेशदायक प्राणियों के नाश करने में सदा उद्यत रहे ॥४९॥ यह मन्त्र आ चुका है-अ० ८।३।१३ ॥
टिप्पणी: ४९−अयं मन्त्रो व्याख्यातः-अ० ८।३।१३ ॥