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दे॒वस्य॑ सवि॒तुर्भा॒ग स्थ॑। अ॒पां शु॒क्रमा॑पो देवी॒र्वर्चो॑ अ॒स्मासु॑ धत्त। प्र॒जाप॑तेर्वो॒ धाम्ना॒स्मै लो॒काय॑ सादये ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

देवस्य । सवितु: । भाग: । स्थ । अपाम् । शुक्रम् । आप: । देवी: । वर्च: । अस्मासु । धत्त । प्रजाऽपते । व: । धाम्ना । अस्मै । लोकाय । सादये ॥५.१४॥

अथर्ववेद » काण्ड:10» सूक्त:5» पर्यायः:0» मन्त्र:14


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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी

विद्वानों के कर्तव्य का उपदेश।

पदार्थान्वयभाषाः - [हे विद्वानो !] तुम (देवस्य) प्रकाशमान (सवितुः) परमेश्वर के (भागः) अंश (स्थ) हो [अर्थात् परमेश्वर में व्याप्त हो]। (देवीः) हे उत्तम गुणवाली (आपः) विदुषी प्रजाओ ! (अपाम्) विद्वानों के बीच (अस्मासु) हम में (शुक्रम्) वीरता और (वर्चः) तेज (धत्त) धारण करो। (वः) तुमको (प्रजापतेः) प्रजापति [परमेश्वर] के (धाम्ना) धर्म [नियम] से (अस्मै) इस (लोकाय) लोक [के हित] के लिये (सादये) मैं बैठाता हूँ ॥१४॥
भावार्थभाषाः - मन्त्र ७ के समान है ॥१४॥
टिप्पणी: १४−(देवस्य) प्रकाशमानस्य (सवितुः) परमेश्वरस्य। अन्यत् पूर्ववत्−म० ७ ॥