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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
मनुष्यशरीर की महिमा का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (कः) कर्ता [परमेश्वर] ने (अस्य) इस [मनुष्य] के (बाहू) दोनों भुजाओं को [इसलिये] (सम् अभरत्) यथावत् पुष्ट किया है कि वह (वीर्यम्) वीर कर्म (करवात् इति) करता रहे। (तत्) इसी लिये (देवः) प्रकाशमान (कः) प्रजापति ने (अस्य) इस [मनुष्य] के (अंसौ) दोनों कन्धों को (कुसिन्धे) धड़ में (अधि) ऐश्वर्य से (आ) यथावत् (दधौ) धारण कर दिया है ॥५॥
भावार्थभाषाः - यहाँ से गत मन्त्रों का उत्तर है−सृष्टिकर्ता परमेश्वर ने इस मनुष्य को भुजा आदि अमूल्य अङ्ग पुरुषार्थ करने के लिये दिये हैं ॥५॥
टिप्पणी: ५−(कः) अ० ७।१०३।१। अन्येष्वपि दृश्यते। पा० ३।२।१०१। डुकृञ्, करणे−ड। मारुते वेधसि ब्रध्ने पुंसि कः कं शिरोऽम्बुनोः-इत्यमरः, व० २३।५। कर्ता। विधाता। प्रजापतिः (अस्य) मनुष्यस्य (बाहू) भुजौ (सम्) सम्यक् (अभरत्) अपोषयत् (वीर्यम्) वीरकर्म। पराक्रमम् (करवात्) कुर्यात् (इति) वाक्यसमाप्तौ (अंसौ) स्कन्धौ (कः) (अस्य) (तत्) तस्मात् (देवः) प्रकाशमानः (कुसिन्धे) म० ३। देहे (अधि) ऐश्वर्येण (आ) समन्तात् (दधौ) धारितवान् ॥