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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
राजा के कर्तव्य दण्ड का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (कृत्ये) हे हिंसा ! (परा इहि) चली जा, (मा तिष्ठः) मत खड़ी हो, (विद्धस्य) घायल के [पद से] (इव) जैसे (पदम्) ठिकाने को (नय) पाले। [हे शूर !] (सः) वह [शत्रु] (मृगः) मृग [समान है], और (त्वम्) तू (मृगयुः) व्याध [समान है], वह (त्वा) तुझको (न) नहीं (निकर्तुम् अर्हति) गिरा सकता है ॥२६॥
भावार्थभाषाः - राजा प्रयत्नपूर्वक अन्वेषण करके दुराचारियों का खोज लगावे, जैसे व्याध घायल आखेट के रुधिर चिह्न से उसे ढूढ़ लेता है ॥२६॥ मनु महाराज कहते हैं−अध्याय ८ श्लोक ४४ ॥ यथा नयत्यसृक्पातैर्मृगस्य मृगयुः पदम्। नयेत्तथानुमानेन धर्मस्य नृपतिः पदम् ॥१॥ जैसे व्याध रुधिर के गिरने से मृग का ठिकाना पा लेता है, वैसे ही राजा अनुमान से धर्म का ठिकाना पावे ॥१॥
टिप्पणी: २६−(परेहि) निर्गच्छ (कृत्ये) हे हिंसे (मा तिष्ठः) (विद्धस्य) व्यध ताडने-क्त। प्रहृतस्य (इव) (पदम्) स्थानम् (नय) प्राप्नुहि (मृगः) (सः) शत्रुः (मृगयुः) मृगय्वादयश्च। उ० १।३७। मृग+या प्रापणे-कु। व्याधः (त्वम्) (न) निषेधे (त्वा) (निकर्तुम्) अभिभवितुम् (अर्हति) युज्यते ॥