देवता: अपांनपात् सोम आपश्च देवताः
ऋषि: सिन्धुद्वीपं कृतिः, अथवा अथर्वा
छन्द: गायत्री
स्वर: जल चिकित्सा सूक्त
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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
आरोग्यता के लिये उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (आपः) हे व्यापनशील जलो ! [जलसमान उपकारी पुरुषो] (मम) मेरे (तन्वे) शरीर के लिये (च) और (ज्योक्) बहुत काल तक (सूर्यम्) चलने वा चलानेवाले सूर्य को (दृशे) देखने के लिये (वरूथम्) कवचरूप (भेषजम्) भयनिवारक औषध को (पृणीत) पूर्ण करो ॥३॥
भावार्थभाषाः - जैसे युद्ध में योद्धा की रक्षा झिलम से होती है, वैसे ही जलसमान उपकारी पुरुष परस्पर सहायक होकर सबका जीवन आनन्द से बढ़ाते हैं ॥३॥
टिप्पणी: ३−आपः। हे व्यापयितॄणि जलानि [जलसमानोपकारिणः पुरुषाः]। पृणीत। पॄ पालनपूरणयोः−लोट् पालयत, पूरयत। भेषजम्। १।४।४। भयनिवारकम्। औषधम्। वरुथम्। जॄवृञ्भ्यामूथन्। उ० २।६। इति वृञ् वरणे−ऊथन्, व्रियते शरीरमनेन। तनुत्राणम्, कवचम्। तन्वे। १।१।१। तद्वत् पदसिद्धिः स्वरितश्च। तन्यते विस्तीर्यते तनूः। शरीराय। मम। मदीयाय। ज्योक्। ज्यो नियमे-डोकि। चिरकालम्। सूर्यम्। १।३।५। जगतः प्रेरकम्, आदित्यम्। दृशे। दृशे विख्ये च। पा० ३।४।११। इति दृशिर् प्रेक्षणे−तुमर्थे के प्रत्ययान्तो निपात्यते। द्रष्टुम् ॥