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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
बल की प्राप्ति के लिये उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (वार्याणाम्) चाहने योग्य धनों की (ईशानाः) ईश्वरी और (चर्षणीनाम्) मनुष्यों की (क्षयन्तीः) स्वामिनी (अपः) जलधाराओं [जल के समान उपकारी प्रजाओं] से मैं, (भेषजम्) भय जीतनेवाले ओषध को (याचामि) माँगता हूँ ॥४॥
भावार्थभाषाः - जल से अन्न आदि औषध उत्पन्न होकर मनुष्य के धन और बल का कारण हैं। सो जल के समान गुणी महात्माओं से सहाय लेकर मनुष्यों को आनन्दित रहना चाहिये ॥४॥ यह मन्त्र ऋग्वेद १०।९।५। है ॥
टिप्पणी: ४−ईशानाः। ईश ऐश्वर्ये-शानच्। ईश्वरीः, नियन्त्रीः। वार्याणाम्। ऋहलोर्ण्यत्। पा० ३।१।१२४। इति वृङ् संभक्तौ-ण्यत्। अधीगर्थदयेशां कर्मणि। पा० २।३।५२। इति कर्मणि षष्ठी। वरणीयानां, धनानाम्। क्षयन्तीः। क्षि निवासे, ऐश्वर्ये च−लटः शतृ। उगितश्च। पा० ४।१।६। इति ङीप्। ईश्वरीः, स्वामिनीः। चर्षणीनाम्। कृषेरादेश्च चः। उ० २।१०४। इति कृप कर्षणे-अनि, चादेशः। आकर्षन्ति वशीकुर्व्वन्ति−इत्यर्थः। चर्षण्यः=मनुष्याः निघं० २।३। पूर्ववत् कर्मणि षष्ठी। मनुष्याणाम्। अपः। अकथितं च। पा० १।४।१०४। इति अपादाने द्वितीया। जलधाराः। जलधारासकाशात्। जलवत् उपकारिभ्यो मनुष्येभ्यः। याचामि। याचृ याच्ञायाम्-लट्। द्विकर्मकः। अहं याचे, प्रार्थये। भेषजम्। १।४।४। रोगनिवर्तकम्, औषधम् ॥