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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
बल की प्राप्ति के लिये उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - [हे पुरुषार्थी मनुष्यो !] (तस्मै) उस पुरुष के लिये (वः) तुम को (अरम्) शीघ्र वा पूर्ण रीति से (गमाम) हम पहुचावें, (यस्य) जिस पुरुष के (क्षयाय) ऐश्वर्य के लिये (जिन्वथ) तुम अनुग्रह करते हो। (आपः) हे जलो [जल समान उपकारी लोगो] (नः) हमको (च) अवश्य (जनयथ) तुम उत्पन्न करते हो ॥३॥
भावार्थभाषाः - जैसे जल, अन्न आदि को उत्पन्न करके शरीर के पुष्ट करने और नौका, विमान आदि के चलाने में उपयोगी होता है, इसी प्रकार जल के समान उपकारी पुरुष सब लोगों को लाभ और कीर्त्ति के साथ पुनर्जन्म देते हैं ॥३॥
टिप्पणी: ३-अरम्। ऋ गतौ-अच्। शीघ्रम्। यद्वा, अल भूषणे निवारणे-अमु। लस्य रत्वम्। अलम्, पर्य्याप्तं पूर्णतया। गमाम। गम्लृ गतौ णिच्-छान्दसो लोट्। वयं गमयाम, प्रापयाम। क्षयाय। एरच्। पा० ३।३।५६। इति क्षि निवासे ऐश्वर्ये च-अच्। निवासाय। ऐश्वर्यप्राप्तये। जिन्वथ। जिवि प्रीणने लट्। यूयं तर्पयथ। वर्धयथ। अनृगृहीध्वम्। आपः। १।४।३। हे जलधाराः। जनयथ। हेतुमति च। पा० ३।१।२६। इति जनी प्रादुर्भावे-णिच्-लट्, सांहितको दीर्घः। यूयं प्रादुर्भावयथ, उत्पादयथ, प्रजया यशसा वा वर्धयथ। च। अवधारणे, अवश्यम्। समुच्चये ॥