पदार्थान्वयभाषाः - हे (प्रवतः) अपने भक्त के (नपात्) न गिरानेवाले ! (तुभ्यम्) तुझको (एव) अवश्य (नमः) नमस्कार (अस्तु) होवे, (ते) तुझ (हेतये) वज्ररूप को (च) और (तपुषे) तपानेवाले तोप आदि अस्त्ररूप को (नमः) नमस्कार (कृण्मः) हम करते हैं। (यत्) क्योंकि (ते) तेरे (परमम्) बड़े ऊँचे (धाम) धाम [निवास] को (गुहा=गुहायाम्) गुफा में [अपने हृदय और प्रत्येक अगम्य स्थान में] (विद्म) हम जानते हैं। (समुद्रे अन्तः) आकाश के बीच में (नाभिः) बन्ध में रखनेवाली नाभि के समान तू (निहिता) ठहरा हुआ (असि) है ॥३॥
भावार्थभाषाः - उस भक्तरक्षक, दुष्टनाशक परमात्मा का (परम धाम) महत्त्व सबके हृदयों में और सब अगम्य स्थानों में वर्तमान है। जैसे (नाभि) सब नाड़ियों को बन्धन में रखकर शरीर के भार को समान तोल कर रखती है, वैसे ही परमेश्वर (समुद्र) अन्तरिक्ष वा आकाश में स्थित मनुष्य आदि प्राणियों और सब पृथिवी, सूर्य्य आदि लोकों का धारण करनेवाला केन्द्र है। विद्वान् लोग उसको माथा टेकते और उसकी महिमा को जानकर संसार में उन्नति करते हैं ॥३॥