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दे॒वस्य॑ त्वा सवि॒तुः प्र॑स॒वे᳕ऽश्विनो॑र्बा॒हुभ्यां॑ पू॒ष्णो हस्ता॑भ्याम्। उ॒पा॒शोर्वी॒र्ये᳖ण जुहोमि ह॒तꣳ रक्षः॒ स्वाहा॒ रक्ष॑सां त्वा व॒धायाव॑धिष्म॒ रक्षोऽव॑धिष्मा॒मुम॒सौ ह॒तः ॥३८॥

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पद पाठ

दे॒वस्य॑। त्वा॒। स॒वि॒तुः। प्र॒स॒व इति॑ प्रऽस॒वे। अ॒श्विनोः॑। बा॒हुभ्या॒मिति॑ बा॒हुऽभ्या॑म्। पू॒ष्णः। हस्ता॑भ्याम्। उ॒पा॒शोरित्यु॑पऽअ॒ꣳशोः। वी॒र्येण। जु॒हो॒मि॒। ह॒तम्। रक्षः॑। स्वाहा॑। रक्ष॑साम्। त्वा॒। व॒धाय॑। अव॑धिष्म। रक्षः॑। अव॑धिष्म। अ॒मुम्। अ॒सौ। ह॒तः ॥३८॥

यजुर्वेद » अध्याय:9» मन्त्र:38


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

प्रजाजन राज्य में कैसे सभाधीश को स्वीकार करें, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे राजन् ! मैं (स्वाहा) सत्य क्रिया से (सवितुः) ऐश्वर्य्य के उत्पन्न करनेवाले (देवस्य) प्रकाशित न्याययुक्त (प्रसवे) ऐश्वर्य्य में (उपांशोः) समीपस्थ सेना के (वीर्य्येण) सामर्थ्य से (अश्विनोः) सूर्य्य-चन्द्रमा के समान सेनापति के (बाहुभ्याम्) भुजाओं से (पूष्णः) पुष्टिकारक वैद्य के (हस्ताभ्याम्) हाथों से (रक्षसाम्) राक्षसों के (वधाय) नाश के अर्थ (त्वा) आपको (जुहोमि) ग्रहण करता हूँ, जैसे तूने (रक्षसाम्) दुष्ट को (हतम्) नष्ट किया, वैसे हम लोग भी दुष्टों को (अवधिष्म) मारें, जैसे (असौ) वह दुष्ट (हतः) नष्ट हो जाय, वैसे हम लोग इन सब को (अवधिष्म) नष्ट करें ॥३८॥
भावार्थभाषाः - प्रजाजनों को चाहिये कि अपने बचाव और दुष्टों के निवारणार्थ विद्या और धर्म की प्रवृत्ति के लिये अच्छे स्वभाव, विद्या और धर्म के प्रचार करनेहारे, वीर, जितेन्द्रिय, सत्यवादी, सभा के स्वामी राजा को स्वीकार करें ॥३८॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

प्रजाजना इह कीदृशं सभाधीशं राजानं स्वीकुर्युरित्याह ॥

अन्वय:

(देवस्य) प्रकाशितन्यायस्य (त्वा) त्वाम् (सवितुः) ऐश्वर्य्योत्पादकस्य सेनेशस्य (प्रसवे) ऐश्वर्ये (अश्विनोः) सूर्य्याचन्द्रमसोरिव सभासेनापत्योः (बाहुभ्याम्) (पूष्णः) पुष्टिकर्तुर्वैद्यस्य (हस्ताभ्याम्) (उपांशोः) उप समीपेऽनिति तस्य, अत्रान धातोरुः शुगागमश्च (वीर्य्येण) सामर्थ्येन (जुहोमि) गृह्णामि (हतम्) विनष्टम् (रक्षः) राक्षसम्। रक्षो रक्षितव्यमस्माद् रहसि क्षणोतीति वा रात्रौ नक्षत इति वा। (निरु०४.१८) (स्वाहा) सत्यया क्रियया (रक्षसाम्) दुष्टानाम् (त्वा) त्वाम् (वधाय) विनाशाय (अवधिष्म) हन्याम (रक्षः) दुष्टाचारम् (अवधिष्म) ताडये (अमुम्) परोक्षम् (असौ) दूरस्थः (हतः) विनष्टः। अयं मन्त्रः (शत०५.२.४.१७-२०) व्याख्यातः ॥३८॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे राजन्नहं स्वाहा सवितुर्देवस्य प्रसव उपांशोर्वीर्य्येणाश्विनोर्बाहुभ्यां पूष्णो हस्ताभ्यां रक्षसां वधाय त्वा जुहोमि, यथा त्वया रक्षो हतम्, तथा वयमप्यवधिष्म। यथासौ हतः स्यात्, तथा वयमेतमवधिष्म ॥३८॥
भावार्थभाषाः - प्रजास्थजनाः स्वरक्षणाय दुष्टनिवारणाय विद्याधर्मप्रवृत्तये च सुशीलं राजानं स्वीकुर्युः ॥३८॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - प्रजेने आपल्या रक्षणासाठी, दुष्टांच्या निवारणासाठी विद्या आणि धर्माकडे (लोकांची) प्रवृत्ती निर्माण व्हावी त्यासाठी उत्तम स्वभावाच्या विद्या व धर्माचा प्रसार करणाऱ्या, वीर, जितेन्द्रिय, सत्यवादी अशा व्यक्तीला सभेचा राजा म्हणून स्वीकारावे.