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बृह॑स्पते॒ वाजं॑ जय॒ बृह॒स्पत॑ये॒ वाचं॑ वदत॒ बृह॒स्पतिं॒ वाजं॑ जापयत। इन्द्र॒ वाजं॑ ज॒येन्द्रा॑य॒ वाचं॑ वद॒तेन्द्रं॒ वाजं॑ जापयत ॥११॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

बृह॑स्पते। वाज॑म्। ज॒य॒। बृह॒स्पत॑ये। वाच॑म्। व॒द॒त॒। बृह॒स्पति॑म्। वाज॑म्। जा॒प॒य॒त॒। इन्द्र॑। वाज॑म्। ज॒य॒। इन्द्रा॑य। वाच॑म्। व॒द॒त॒। इन्द्र॑म्। वाज॑म्। जा॒प॒य॒त॒ ॥११॥

यजुर्वेद » अध्याय:9» मन्त्र:11


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब उपदेश करने और सुननेवालों का विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (बृहस्पते) सम्पूर्ण विद्याओं का प्रचार और उपदेश करनेहारे राजपुरुष ! आप (वाजम्) विज्ञान वा सङ्ग्राम को (जय) जीतो। हे विद्वानो ! तुम लोग इस (बृहस्पतये) राजपुरुष के लिये (वाचम्) वेदोक्त सुशिक्षा से प्रसिद्ध वाणी को (वदत) पढ़ाओ और उपदेश करो इस (बृहस्पतिम्) राजा वा सर्वोत्तम अध्यापक को (वाजम्) विद्याबोध व युद्ध को (जापयत) बढ़ाओ और जिताओ। हे (इन्द्र) विद्या के ऐश्वर्य्य का प्रकाश वा शत्रुओं को विदीर्ण करनेहारे राजपुरुष ! आप (वाजम्) परम ऐश्वर्य्य वा शत्रुओं के विजयरूपी युद्ध को (जय) जीतो। हे युद्धविद्या में कुशल विद्वानो ! तुम लोग इस (इन्द्राय) परम ऐश्वर्य्य को प्राप्त करनेवाले राजपुरुष के लिये (वाजम्) राजधर्म का प्रचार करनेहारी वाणी को (वदत) कहो, इस (इन्द्रम्) राजपुरुष को (वाजम्) सङ्ग्राम को (जापयत) जिताओ ॥११॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। राजा को ऐसा प्रयत्न करना चाहिये कि जिस से वेदविद्या का प्रचार और शत्रुओं का विजय सुगम हो और उपदेशक तथा योद्धा लोग ऐसा प्रयत्न करें कि जिस राज्य में वेदादिशास्त्र पढ़ने-पढ़ाने की प्रवृत्ति और अपना राजा विजयरूपी आभूषणों से सुशोभित होवे कि जिससे अधर्म का नाश और धर्म की वृद्धि अच्छे प्रकार से स्थिर होवे ॥११॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथोपदेष्टृविधिमाह ॥

अन्वय:

(बृहस्पते) सकलविद्याप्रचारकोपदेशक ! (वाजम्) विज्ञानं सङ्ग्रामं वा (जय) (बृहस्पतये) अध्ययनाध्यापनाभ्यां विद्याप्रचाररक्षकाय (वाचम्) वेदसुशिक्षाजनितां वाणीम् (वदत) अध्यापयतोपदिशत वा (बृहस्पतिम्) सम्राजमनूचानमध्यापकं वा (वाजम्) विद्याबोधं युद्धं वा (जापयत) उत्कर्षेण बोधयत (इन्द्र) विद्यैश्वर्यप्रकाशक शत्रुविदारक वा (वाजम्) परमैश्वर्य्यं शत्रुविजयाख्यं युद्धं वा (जय) उत्कर्ष (इन्द्राय) परमैश्वर्यप्रापकाय (वाचम्) राजधर्मप्रचारिणीं वाणीम् (वदत) (इन्द्रम्) (वाजम्) (जापयत) उत्कृष्टतां प्रापयत। अयं मन्त्रः (शत०५.१.५.८-९) व्याख्यातः ॥११॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे बृहस्पते सर्वविद्याध्यापकोपदेशक वा ! त्वं वाजं जय। हे विद्वांसः ! यूयमस्मै बृहस्पतये वाचं वदतेमं बृहस्पतिं वाजं जापयत। हे इन्द्र ! त्वं वाजं जय। हे युद्धविद्याकुशला विद्वांसः ! यूयमस्मा इन्द्राय वाचं वदतेममिन्द्रं वाजं जापयत ॥११॥
भावार्थभाषाः - अत्र श्लेषालङ्कारः। राजा तथा प्रयतेत यथा वेदविद्याप्रचारः शत्रुविजयश्च सुगमः स्यात्। उपदेशका योद्धारश्चेत्थं प्रयतेरन्, यतो राज्ये वेदादिशास्त्राध्ययनाऽध्यापनप्रवृत्तिः स्वराजा विजयाऽलङ्कृतो भवेद्, येन धर्मवृद्धिरधर्महानिश्च सुतिष्ठेत् ॥११॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. राजाने वेदविद्येचा प्रसार होईल व शत्रूंवर सहज विजय प्राप्त करता येईल असा प्रयत्न करावा. उपदेशक व योद्धे वगैरेंनी असा प्रयत्न करावा की राज्यामध्ये वेदादी शास्त्रांचे अध्ययन व अध्यापन याबाबत रुची निर्माण व्हावी. राजा हा विजयरूपी आभूषणांनी सुशोभित असावा. ज्यामुळे अधर्माचा नाश व धर्माची वृद्धी व्हावी.