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स॒जोषा॑ऽइन्द्र॒ सग॑णो म॒रुद्भिः॒ सोमं॑ पिब वृत्र॒हा शू॑र वि॒द्वान्। ज॒हि शत्रूँ॒२रप॒ मृधो॑ नुद॒स्वाथाभ॑यं कृणुहि वि॒श्वतो॑ नः। उ॒प॒या॒मगृ॑हीतो॒ऽसीन्द्रा॑य त्वा म॒रुत्व॑तऽए॒ष ते॒ योनि॒रिन्द्रा॑य त्वा म॒रुत्व॑ते ॥३७॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

स॒जोषा॒ इ॒ति॑ स॒ऽजोषाः॑। इ॒न्द्र॒। सग॑ण इति॒ सऽग॑णः। म॒रुद्भि॒रिति॑ म॒रुत्ऽभिः॑। सोम॑म्। पि॒ब॒। वृ॒त्र॒हेति॑ वृत्र॒ऽहा। शू॒र॒। वि॒द्वान्। ज॒हि। शत्रू॑न्। अप॑। मृधः॑। नु॒द॒स्व॒। अथ॑। अ॒भय॑म्। कृ॒णु॒हि॒। वि॒श्वतः॑। नः॒। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। इन्द्रा॑य। त्वा॒। म॒रुत्व॑ते। ए॒षः। ते॒। योनिः॑। इन्द्रा॑य। त्वा॒। म॒रुत्व॑ते ॥३७॥

यजुर्वेद » अध्याय:7» मन्त्र:37


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब सेनापति का काम अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - ईश्वर कहता है कि (इन्द्र) सब सुखों के धारण करने हारे (शूर) शत्रुओं के नाश करने में निर्भय ! जिससे तू (उपयामगृहीतः) सेना के अच्छे-अच्छे नियमों से स्वीकार किया हुआ (असि) है, इससे (मरुत्वते) जिसमें प्रशंसनीय वायु की अस्त्रविद्या है, उस (इन्द्राय) परमैश्वर्य्य पहुँचानेवाले युद्ध के लिये (त्वा) तुझ को उपदेश करता हूँ कि (ते) तेरा (एषः) यह सेनाधिकार (योनिः) इष्ट सुखदायक है, इससे (मरुत्वते) (इन्द्राय) उक्त युद्ध के लिये यत्न करते हुए तुझ को मैं अङ्गीकर करता हूँ और (सजोषाः) सबसे समान प्रीति करनेवाला (सगणः) अपने मित्रजनों के सहित तू (मरुद्भिः) जैसे पवन के साथ (वृत्रहा) मेघ के जल को छिन्न-भिन्न करनेवाला सूर्य्य (सोमम्) समस्त पदार्थों के रस को खींचता है, वैसे सब पदार्थों के रस को (पिब) सेवन कर और इससे (विद्वान्) ज्ञानयुक्त हुआ तू (शत्रून्) सत्यन्याय के विरोध में प्रवृत्त हुए दुष्टजनों का (जहि) विनाश कर। (अथ) इसके अनन्तर (मृधः) जहाँ दुष्टजन दूसरे के दुःख से अपने मन को प्रसन्न करते हैं, उन सङ्ग्रामों को (अपनुदस्व) दूर कर और (नः) हम लोगों को (विश्वतः) सब जगह से (अभयम्) भयरहित (कृणुहि) कर ॥३७॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे जीव प्रेम के साथ अपने मित्र वा शरीर की रक्षा करता है, वैसे ही राजा प्रजा की पालना करे और जैसे सूर्य्य वायु और बिजुली के साथ मेघ का भेदन कर जल से सब को सुख देता है, वैसे राजा को चाहिये कि युद्ध की सामग्री जोड़ और शत्रुओं को मार कर प्रजा को सुख धर्म्मात्माओं की निर्भयता और दुष्टों को भय देवे ॥३७॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ सेनापतिकृत्यमाह ॥

अन्वय:

(सजोषाः) समानं जोषः प्रीतिर्यस्य (इन्द्र) सर्वसुखधारक सेनापते ! (सगणः) गणेन स्वजनसेनापरिकरेण सहितः (मरुद्भिः) वायुभिरिव (सोमम्) सकलपदार्थरसम् (पिब) (वृत्रहा) यो वृत्रं मेघं हन्ति स वृत्रहा सूर्य्यस्तद्वत् (शूर) शत्रुविनाशक निर्भय (विद्वान्) सकलविद्यावेत्ता (जहि) विनाशय (शत्रून्) सत्यन्यायविरोधे प्रवर्त्तमानान् (अप) दूरीकरणे (मृधः) मर्द्धन्ति उन्दन्ति परसुखैः स्वमनांसि येषु तान् सङ्ग्रामान् (नुदस्व) प्रेरय (अथ) अनन्तरम् (अभयम्) (कृणुहि) (विश्वतः) सर्वतः (नः) अस्मभ्यम् (उपयामगृहीतः) सेनासु नियमस्वीकृतः (असि) (इन्द्राय) परमैश्वर्यप्रापकाय युद्धाय (त्वा) त्वाम् (मरुत्वते) प्रशस्तानि मरुदस्त्राणि विद्यन्ते यस्मिंस्तस्मै (एषः) सेनाकृत्यव्यवहारः (ते) (योनिः) (इन्द्राय) (त्वा) (मरुत्वते) ॥३७॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे इन्द्र सेनापते शूर ! यतस्त्वमुपयामगृहीतोऽस्यतो मरुत्वत इन्द्राय त्वा त्वामुपदिशामि। किमित्यपेक्षायामाह ते तवैष योनिरस्त्यतस्त्वां मरुत्वत इन्द्राय प्रयतमानमङ्गीकरोमि, सजोषा सगणस्त्वं मरुद्भिर्वृत्रहा इव सोमं पिब, तं पीत्वा विद्वान् सन् शत्रूञ्जहि, अथ मृधोपनुदस्व नोऽस्मभ्यं विश्वतोऽभयं कृणुहि ॥३७॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। यथा जीवः प्रेम्णा स्वस्य मित्रस्य वा शरीरस्य रक्षणं करोति, तथा राजा प्रजां पालयेत्। यथा वा सूर्य्यो वायुविद्युद्भ्यां संहत्य मेघान्निहत्य जलेन सर्वस्मै सुखं ददाति, तथा राजा युद्धसाधनानि सम्पाद्य शत्रून्निहत्य प्रजायै सुखं दद्यात्, धर्म्मात्मभ्योऽभयं दुष्टेभ्यो भयं च दद्यात् ॥३७॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. ज्याप्रमाणे माणूस आपले शरीर किंवा मित्र यांचे रक्षण करतो त्याप्रमाणेच राजाने प्रजेचे पालन करावे. ज्याप्रमाणे सूर्य वायू व विद्युत यांच्या साह्याने मेघापासून जल प्राप्त करून सर्वांना सुखी करतो त्याप्रमाणेच राज्याने युद्धसाहित्य बाळगून शत्रूंचे हनन करावे व प्रजा सुखी करावी. धर्मात्मा लोकांना निर्भय करावे व दुष्टांना भयभीत करावे.