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या वां॒ कशा॒ मधु॑म॒त्यश्वि॑ना सू॒नृता॑वती। तया॑ य॒ज्ञं मि॑मिक्षितम्। उ॒प॒या॒मगृ॑हीतोऽस्य॒श्विभ्यां॑ त्वै॒ष ते॒ योनि॒र्माध्वी॑भ्यां त्वा ॥११॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

या। वा॒म्। कशा॑। मधु॑मतीति॒ मधु॑ऽमती। अश्वि॑ना। सू॒नृताव॒तीति॑ सू॒नृता॑ऽवती। तया॑। य॒ज्ञम्। मि॒मि॒क्ष॒त॒म्। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। अ॒श्विभ्या॒मि॒त्य॒श्विऽभ्या॑म्। त्वा॒। ए॒षः। ते॒। योनिः॑। माध्वी॑भ्याम्। त्वा॒ ॥११॥

यजुर्वेद » अध्याय:7» मन्त्र:11


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर भी इन योगविद्या पढ़ने-पढ़ानेवालों के करने योग्य काम का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अश्विना) सूर्य्य और चन्द्र के तुल्य प्रकाशित योग के पढ़ने-पढ़ानेवालो ! (या) जो (वाम्) तुम्हारी (मधुमती) प्रशंसनीय मधुरगुणयुक्त (सूनृतावती) प्रभात समय में क्रम-क्रम से प्रदीप्त होनेवाली उषा के समान (कशा) वाणी है, (तया) उससे (यज्ञम्) ईश्वर से सङ्ग कराने हारे योगरूपी यज्ञ को (मिमिक्षतम्) सिद्ध करना चाहो। हे योग पढ़नेवाले ! तू (उपयामगृहीतः) यम-नियमादिकों से स्वीकार किया गया (असि) है, (ते) तेरा (एषः) यह योग (योनिः) घर के समान सुखदायक है, इससे (अश्विभ्याम्) प्राण और अपान के योगोचित नियमों के साथ वर्त्तमान (त्वा) तुझ और हे योगाध्यापक ! (माध्वीभ्याम्) माधुर्य्य लिये जो श्रेष्ठ नीति और योगरीति हैं, उनके साथ वर्त्तमान (त्वा) आप का हम लोग आश्रय करते हैं अर्थात् समीपस्थ होते हैं ॥११॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। योगी लोग मधुर प्यारी वाणी से योग सीखनेवालों को उपदेश करें और अपना सर्वस्व योग ही को जानें तथा अन्य मनुष्य वैसे योगी का सदा आश्रय किया करें ॥११॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनरप्येतयोः कर्त्तव्यमुपदिश्यते ॥

अन्वय:

(या) (वाम्) युवयोः (कशा) वाणी। कशेति वाङ्नामसु पठितम्। (निघं०१.११) (मधुमती) प्रशस्तमाधुर्य्यगुणयुक्तेव। (अश्विना) सूर्य्यचन्द्रवत् प्रकाशमानौ (सूनृतावती) उषा इव (तया) (यज्ञम्) योगम् (मिमिक्षतम्) सेक्तुमिच्छतम् (उपयामगृहीतः) उपनियमैः स्वीकृतः (असि) (अश्विभ्याम्) प्राणापानाभ्याम् (त्वा) त्वाम् (एषः) (ते) तव (योनिः) गृहम् (माध्वीभ्याम्) सुनीतियोगरीतिभ्याम् (त्वा) त्वाम् ॥ अयं मन्त्रः (शत०४.१.५.१७ तथा ४.१.६.१-७) व्याख्यातः ॥११॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे अश्विनौ योगाध्येत्रध्यापकौ ! या वां मधुमती सूनृतावती कशाऽस्ति, तया यज्ञं मिमिक्षतम्। हे योगमभीप्सो ! त्वमुपयामगृहीतोऽसि, किं च ते तवैष योगो योनिरस्त्यतोऽश्विभ्यां सह वर्त्तमानं त्वाम्। हे योगाध्यापक ! माध्वीभ्यां सह वर्त्तमानं च त्वां वयमुपाश्रयामः ॥११॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। योगिनो मधुरवाचाध्येतॄन् प्रति योगमुपदिशेयुरात्मसर्वस्वं योगमेव मन्येरन्नितरे जनास्तादृशं योगिनं सर्वत्राऽऽश्रयेयुरिति ॥११॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. योग्यांनी मधुरप्रिय वाणीने, योगाभ्यासींना, जनांना उपदेश करावा व योग हे आपले सर्वस्व आहे हे जाणावे तसेच इतरांनीही अशा योग्यांचा सदैव आश्रय घ्यावा.