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मा भे॒र्मा संवि॑क्था॒ऽऊर्जं॑ धत्स्व॒ धिष॑णे वी॒ड्वी स॒ती वी॑डयेथा॒मूर्जं॑ दधाथाम्। पा॒प्मा ह॒तो न सोमः॑ ॥३५॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

मा। भेः॒। मा। सम्। वि॒क्थाः॒। ऊर्ज॑म्। ध॒त्स्व॒। धिष॑णे॒ऽइति॑ धिष॑णे। वीड्वीऽइति॑ वी॒ड्वी। स॒ती॑ऽइति॑ स॒ती। वी॒ड॒ये॒था॒म्। ऊ॑र्जम्। द॒धा॒था॒म्। पा॒प्मा। ह॒तः। न। सोमः॑ ॥३५॥

यजुर्वेद » अध्याय:6» मन्त्र:35


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर स्त्री पुरुष परस्पर कैसा वर्त्ताव वर्त्तें, यह उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे स्त्री ! तू (विड्वी) शरीरात्मबलयुक्त होती हुई पति से (मा, भेः) मत डर (मा संविक्थाः) मत कँप और (ऊर्ज्जम्) देह और आत्मा के बल और पराक्रम को (धत्स्व) धारण कर। हे पुरुष ! तू भी वैसे ही अपनी स्त्री से वर्त। तुम दोनों स्त्री-पुरुष (धिषणे) सूर्य्य और भूमि के समान परोपकार और पराक्रम को धारण करो, जिससे (वीडयेथाम्) दृढ़ बलवाले हो, ऐसा वर्ताव वर्त्तते हुए तुम दोनों का (पाप्मा) अपराध (हतः) नष्ट हो और (सोमः) चन्द्र के तुल्य आनन्द शान्त्यादि गुण बढ़ा कर एक-दूसरे का आनन्द बढ़ाते रहो ॥३५॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। स्त्री-पुरुष ऐसे व्यवहार में वर्त्तें कि जिससे उनका परस्पर भय, उद्वेग नष्ट होकर आत्मा की दृढ़ता, उत्साह और गृहाश्रम व्यवहार की सिद्धि से ऐश्वर्य्य बढ़े और दोष तथा दुःख को छोड़ चन्द्रमा के तुल्य आह्लादित हों ॥३५॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स्त्रीपुरुषौ परस्परं कथं वर्त्तेयातामित्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

(मा) (भेः) मा बिभीयाः, लिडर्थे लुङ्। (मा) (सम्) (विक्थाः) भयं कम्पनं च कुर्य्याः (ऊर्ज्जम्) स्वशरीरात्मबलं पराक्रमं वा (धत्स्व) (धिषणे) द्यावापृथिव्याविव (वीड्वी) बलवती। वीड्वीति बलनामसु पठितम्। (निघं०२.९) (सती) सद्गुणयुक्त (वीडयेथाम्) दृढबलौ भवेताम् (ऊर्ज्जम्) सन्तानादिभ्योऽपि बलं पराक्रमं च (दधाथाम्) (पाप्मा) अपराधः (हतः) नष्ट (न) इव (सोमः) ॥ अयं मन्त्रः (शत०२.९.४.१८) व्याख्यातः ॥३५॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे स्त्रि ! त्वं वीड्वी सती पत्युः सकाशान्मा भेर्मा संविक्था ऊर्ज्जं धत्स्व। हे पुरुष ! त्वमप्येवं भवेः, युवां धिषणे इवोर्ज्जं दधाथां वीडयेथाम्। एवमनुवर्तिनोर्युवयोः पाप्मा हतो भवतु, सोमो न चन्द्र इवाह्लादशान्त्यादिगुणवृन्दः प्रकाशितो भवतु ॥३५॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। इत्थं स्त्रीपुरुषौ व्यवहारमनुवर्त्तेयाताम्, यतः परस्परं भयोद्वेगौ नश्येतामात्मनो दृढोत्साहः प्रीतिर्गृहाश्रमव्यवहारसिद्धिरैश्वर्य्यं च वर्द्धेत, दोषदुःखानि निवर्त्त्य चन्द्र इव परस्परमाह्लादकारिणौ भवेताम् ॥३५॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचक लुप्तोपमालंकार आहे. स्त्री-पुरुषांनी असा व्यवहार करावा की, ज्यामुळे परस्पर भय व उद्वेग नष्ट होऊन आत्म्यामध्ये दृढता, उत्साह व गृहस्थाश्रमाचे ऐश्वर्य वाढावे. त्यांनी दोष व दुःख दूर करून चंद्राप्रमाणे आल्हादित व्हावे.