वांछित मन्त्र चुनें

श्वा॒त्रा स्थ॑ वृत्र॒तुरो॒ राधो॑गूर्त्ताऽअ॒मृत॑स्य॒ पत्नीः॑। ता दे॑वीर्देव॒त्रेमं य॒ज्ञं न॑य॒तोप॑हूताः॒ सोम॑स्य पिबत ॥३४॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

श्वा॒त्राः। स्थ॒। वृ॒त्र॒तुर॒ इति॑ वृत्र॒ऽतुरः॑। राधो॑गूर्त्ता॑ इति॑ राधः॑ऽगूर्त्ताः। अ॒मृत॑स्य। पत्नीः॑। ताः। दे॒वीः॒। दे॒व॒त्रेति॑ देव॒ऽत्रा। इ॒मम्। य॒ज्ञम्। न॒य॒त॒। उप॑हूता॒ इत्यु॑पऽहूताः। सोम॑स्य। पि॒ब॒त॒ ॥३४॥

यजुर्वेद » अध्याय:6» मन्त्र:34


बार पढ़ा गया

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब उक्त सभाध्यक्षादिकों की स्त्री कैसे कर्म्म करनेवाली हों, यह अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (देवीः) विद्यायुक्त स्त्रियो ! तुम (वृत्रतुरः) बिजुली के सदृश, मेघ की वर्षा के तुल्य, सुखदायक की गति तुल्य चलने (राधोगूर्त्ताः) धन का उद्योग करने (पत्न्यः) और यज्ञ में सहाय देनेवाली (स्थ) हो (देवत्रा) तथा अच्छे-अच्छे गुणों से प्रकाशित विद्वान् पतियों में प्रीति से स्थित हो, (इमम्) इस यज्ञ को (नयत) सिद्धि को प्राप्त किया कीजिये और (उपहूताः) बुलाई हुई पतियों के साथ (अमृतस्य) अति स्वाद-युक्त सोम आदि ओषधियों के रस को (पिबत) पीओ ॥३४॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे विद्वानों की पत्नी स्त्रीजन स्वधर्म व्यवहार से अपने पतियों को प्रसन्न करती हैं, उसी प्रकार पुरुष उन अपनी स्त्रियों को निरन्तर प्रसन्न करें, ऐसे परस्पर अनुमोद से गृहाश्रमधर्म को पूर्ण करें ॥३४॥
बार पढ़ा गया

संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथोक्तानां सभापत्यादिविदुषां पत्न्यः कीदृशकर्मानुष्ठात्र्यो भवन्त्वित्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

(श्वात्राः) श्वात्रं शीघ्रं कर्मविज्ञानं वर्त्तते यासां ताः। अर्शआदित्वादच्। श्वात्रमिति क्षिप्रनामसु पठितम्। (निघं०५.३) (स्थ) (वृत्रतुरः) वृत्रं मेघं तूर्वति यास्ता विद्युत इव (राधोगूर्त्ताः) धनवर्द्धिन्य एव (अमृतस्य) अतिस्वादिष्टस्य (पत्नीः) पत्न्यः (ताः) (देवीः) देदीप्यमानाः (देवत्रा) देवेषु पतिषु (इमम्) गृहसम्बन्धिनम् (यज्ञम्) सङ्गन्तव्यम् (नयत) (उपहूताः) सामीप्यमाहूताः (सोमस्य) सोमाद्योषधिनिष्पादितस्य सारम्। अत्र कर्मणि षष्ठी ॥ अयं मन्त्रः (शत०३.९.४.१६-१७) व्याख्यातः ॥३४॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे देवीर्देव्यः पत्न्यः स्त्रियो यूयं वृत्रतुर इव राधोगूर्त्ता एव सत्यो यज्ञसहकारिण्यः श्वात्राः स्थ ता देवत्रेमं यज्ञं नयत, उपहूता इवामृतस्य सोमस्यातिस्वादिष्टं सोमाद्योषधिरसं पिबत ॥३४॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा विदुष्यो विद्वत्स्त्रियः स्वधर्मव्यवहारेण स्वपतीन् प्रसादयन्ति, तथैव पुरुषाः स्वाः स्त्रीस्सततं प्रसादयेयुरित्थं परस्परानुमोदेन गृहाश्रमधर्ममलंकुर्वन्तु ॥३४॥
बार पढ़ा गया

मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जशा विद्वानांच्या स्त्रिया आपल्या धर्मानुसार व्यवहार करून आपल्या पतींना प्रसन्न करतात, त्याचप्रमाणे पुरुषांनीही आपल्या स्त्रियांना सतत प्रसन्न ठेवावे. याप्रमाणे परस्पर आनंदात राहून गृहस्थाश्रम पूर्ण करावा.