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या ते॒ धामा॑न्यु॒श्मसि॒ गम॑ध्यै॒ यत्र॒ गावो॒ भूरि॑शृङ्गाऽअ॒यासः॑। अत्राह॒ तदु॑रुगा॒यस्य॒ विष्णोः॑ प॒र॒मं प॒दमव॑भारि॒ भूरि॑। ब्र॒ह्म॒वनि॑ त्वा क्षत्र॒वनि॑ रायस्पोष॒वनि॒ पर्यू॑हामि। ब्रह्म॑ दृꣳह क्ष॒त्रं दृ॒ꣳहायु॑र्दृꣳह प्र॒जां दृ॑ꣳह ॥३॥

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पद पाठ

या। ते॒। धामा॑नि। उ॒श्मसि॑। गम॑ध्यै। यत्र॑। गावः॑। भूरि॑शृङ्गा॒ इति॒ भूरि॑शृङ्गाः। अ॒यासः॑। अत्र॑। अह॑। तत्। उ॒रु॒गा॒यस्येत्यु॑रुऽगा॒यस्य॑। विष्णोः॑। प॒र॒मम्। प॒दम्। अव॑। भा॒रि॒। भूरि॑। ब्र॒ह्म॒वनीति॑ ब्रह्म॒ऽवनि॑। त्वा॒। क्ष॒त्र॒वनीति॑ क्षत्र॒ऽवनि॑। रा॒य॒स्पो॒ष॒वनीति॑ रायस्पोष॒ऽवनि॑। परि॑। ऊ॒हा॒मि॒। ब्रह्म॑। दृ॒ꣳह॒। क्ष॒त्रम्। दृ॒ꣳह॒। आयुः॑। दृ॒ꣳह॒। प्र॒जामिति॑ प्र॒जाम्। दृ॒ꣳह॒ ॥३॥

यजुर्वेद » अध्याय:6» मन्त्र:3


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह वाणिज्य कर्म करनेवाले मनुष्य उसको कैसा जानकर आश्रय करते हैं, यह उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे सभाध्यक्ष ! (या) जिन में (ते) तेरे (धामानि) धाम अर्थात् जिनमें प्राणी सुख पाते हों, उन स्थानों को हम (गमध्यै) प्राप्त होने की (उश्मसि) इच्छा करते हैं, वे स्थान कैसे हैं कि जैसे सूर्य्य का प्रकाश है, वैसे (यत्र) जिन में (उरुगायस्य) स्तुति करने के योग्य (विष्णोः) सर्वव्यापक परमेश्वर की (भूरिशृङ्गाः) अत्यन्त प्रकाशित (गावः) किरणें चैतन्यकला (अयासः) फैली हैं (अत्र) (अह) इन्हीं में (तत्) उस परमेश्वर का (परमम्) सब प्रकार उत्तम (पदम्) और प्राप्त होने योग्य परमपद विद्वानों ने (भूरि) (अव) (भारि) बहुधा अवधारण किया है, इस कारण (त्वा) तुझे (ब्रह्मवनि) परमेश्वर वा वेद का विज्ञान (क्षत्रवनि) राज्य और वीरों की चाहना (रायस्पोषवनि) धन की पुष्टि के विभाग करनेवाले आप को मैं (पर्यूहामि) विविध तर्कों से समझता हूँ कि तू (ब्रह्म) परमात्मा और वेद को (दृंह) दृढ़ कर अर्थात् अपने चित्त में स्थिर कर बढ़ (क्षत्रम्) राज्य और धनुर्वेदवेत्ता क्षत्रियों को (दृंह) उन्नति दे (आयुः) अपनी अवस्था को (दृंह) बढ़ा अर्थात् ब्रह्मचर्य्य और राजधर्म से दृढ़ कर तथा (प्रजाम्) अपने सन्तान वा रक्षा करने योग्य प्रजाजनों को (दृंह) उन्नति दे ॥३॥
भावार्थभाषाः - सभाध्यक्ष के रक्षा किये हुए स्थानों की कामना के विना कोई भी पुरुष सुख नहीं पा सकता, न कोई जन परमेश्वर का अनादर करके चक्रवर्ती राज्य भोगने के योग्य होता है, न ही कोई भी जन विज्ञान सेना और जीवन अर्थात् अवस्था सन्तान और प्रजा की रक्षा के विना अच्छी उन्नति कर सकता है ॥३॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तं कीदृशं विदित्वा वाणिज्यकर्म्म कुर्वाणा जना आश्रयन्तीदमुपदिश्यते ॥

अन्वय:

(या) यानि (ते) तव सभाध्यक्षस्य (धामानि) दधति सुखानि येषु तानि राज्यप्रबन्धस्थानानि देशदेशान्तरवाणिज्यार्हाणि (उश्मसि) उश्मः कामयामहे (गमध्यै) गन्तुं प्राप्तुम् (यत्र) येषु (गावः) रश्मयः। गाव इति रश्मिनामसु पठितम्। (निघं०१.५) (भूरिशृङ्गाः) भूरीणि शृङ्गाणि प्रकाशा यासु ताः। शृङ्गाणीति ज्वलतो नामसु पठितम्। (निघं०१.१७) (अयासः) अत्यन्त इत्ययासः। महीधरेणात्रायगतावित्यस्य यदयन्तीति परस्मैपदमुक्तं तदसदात्मनेपदोपयोग्यत्वात् (अत्र) येषु (अह) निश्चये (तत्) तस्य (उरुगायस्य) उरुर्बहुर्गायः स्तुतिर्यस्य तस्य। अत्र गै शब्द इत्यस्माद् घञर्थे कविधानम्। [अष्टा०भा०वा०३.३.५८] इति कर्म्मणि कः। (विष्णोः) व्यापकस्य परमेश्वरस्य (परमम्) सर्वथोत्कृष्टम् (पदम्) पत्तुं योग्यम् (अव) क्रियायोगे (भारि) भ्रियते। अत्र लडर्थे लुङ् भृञ् धातोश्चिणि परेऽडभावः। अत्र बहुलं छन्दस्यमाङ्योगेऽपि। (अष्टा (अष्टा०६.४.५७) इति सूत्रेणाडभावः (भूरि) बहु (ब्रह्मवनि) ब्रह्मणो वेतॄणां संविभक्तारं तत्तथा (त्वा) त्वाम् (क्षत्रवनि) क्षत्रस्य राज्यस्य क्षत्रियाणां वा संविभाजकम् (रायस्पोषवनि) राती धनस्य पोषो दृढता तस्याः संविभाजिनम् (परि) परितः (ऊहामि) विविधतया तर्कयामि (ब्रह्म) परमात्मानं वेदं वा (दृंह) स्थिरीकुरु (क्षत्रम्) राज्यं धनुर्वेदविदं क्षत्रियं वा (दृंह) उन्नय (आयुः) जीवनम् (दृंह) (प्रजाम्) स्वसन्तानान् संरक्षणीयान् जनान् (दृंह) ब्रह्मचर्य्यराज्यधर्माभ्यां परिपालय ॥३॥ अत्राह यास्कमुनिः—ता वां वास्तून्युश्मसि गमध्यै यत्र गावो भूरिशृङ्गा अयासः। अत्राह तदुरुगायस्य वृष्णः परमं पदमवमाति भूरि। (ऋ०१.१५४.६) तानि वां वास्तूनि कामयामहे गमनाय यत्र गावो भूरिशृङ्गाः बहुशृङ्गाः। भूरीति बहुनामधेयं प्रभवतीति सतः। शृङ्गं श्रयतेर्वा शृणोतेर्वा शम्नातेर्वा शरणायोद्गतमिति वा शिरसो निर्गतमिति वाऽयासोऽयनास्तत्र तदुरुगायस्य विष्णोर्महागतेः परमं पदं परार्ध्यस्थमवभाति भूरि, पादः पद्यतेः। (निरु०२.७) अयं मन्त्रः (श० ३.७.१५) व्याख्यातः ॥३॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे सभाध्यक्ष ! या यानि ते धामानि गमध्यै गन्तुं वयमुश्मसि तानि किं भूतानि सन्ति, यत्र येषूरुगायस्य विष्णोर्भूरिशृङ्गा गावो अयासो भवन्ति, तदुक्तन्यायमार्गाः प्रकाशन्त एवेति यावत्। अत्राह−एषु हि तत्तस्य विष्णोः परमं पदं विद्वभिर्भूर्य्यवभारि, अतस्त्वां यथा ब्रह्मवनि यथा क्षत्रवनि यथा रायस्पोषवनि तथा पर्य्यूहामि, त्वं ब्रह्म दृंह, क्षत्रं दृंहायुर्दृंह प्रजां चापि दृंह ॥३॥
भावार्थभाषाः - नहि सभाध्यक्षरक्षितस्थानकामनया विना कश्चिदपि सुखं प्राप्तुं शक्नोति, नहि कोऽपि जनः परमेश्वरमनादृत्य धर्मराज्यं भोक्तुमर्हति, नैव कोऽपि विज्ञानं सेनां जीवनं प्रजां चारक्षित्वा समेधत इति ॥३॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - राजाकडून भूभाग सुरक्षित नसेल तर कोणत्याही व्यक्तीला सुख मिळू शकत नाही किंवा परमेश्वरावर श्रद्धा असल्याखेरीज कोणीही व्यक्ती राज्य भोगण्यायोग्य बनू शकत नाही. तसेच कोणीही माणूस वेद, विज्ञान, सेना, जीवनाची अवस्था, संतान किंवा प्रजेचे रक्षण याशिवाय चांगल्या प्रकारे उन्नत होऊ शकत नाही.