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अ॒पां पे॒रुर॒स्यापो॑ दे॒वीः स्व॑दन्तु स्वा॒त्तं चि॒त्सद्दे॑वह॒विः। सं ते॑ प्रा॒णो वाते॑न गच्छता॒ꣳ समङ्गा॑नि॒ यज॑त्रैः॒ सं य॒ज्ञप॑तिरा॒शिषा॑ ॥१०॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒पाम्। पे॒रुः। अ॒सि॒। आपः॑। दे॒वीः। स्व॒द॒न्तु॒। स्वा॒त्तम्। चि॒त्। सत्। दे॒व॒ह॒विरिति॑ देवऽह॒विः। सम्। ते॒। प्रा॒णः। वाते॑न। ग॒च्छ॒ता॒म्। अङ्गा॑नि। यज॑त्रैः। यज्ञप॑तिरिति॑ य॒ज्ञऽपतिः। आ॒शिषेत्या॒ऽशिषा॑ ॥१०॥

यजुर्वेद » अध्याय:6» मन्त्र:10


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब यज्ञोपवीत होने के पश्चात् शिष्य को अत्यावश्यक है कि विद्या, उत्तम शिक्षा का ग्रहण और अग्निहोत्रादिक का अनुष्ठान करे ऐसा उपदेश गुरु किया करे, यह अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे शिष्य ! तू (अपाम्) जल आदि पदार्थों का (पेरुः) रक्षा करनेवाला (असि) है, संसारस्थ जीव तेरे यज्ञ से शुद्ध हुए (देवीः) दिव्य सुख देनेवाले (आपः) जलों को (चित्) और (स्वात्तम्) धर्मयुक्त व्यवहार से प्राप्त हुए पदार्थों को (देवहविः) विद्वानों के भोगने के समान (संस्वदन्तु) अच्छी तरह से भोगें, (आशिषा) मेरे आशीर्वाद से (ते) तेरे (अङ्गानि) शिर आदि अवयव (यजत्रैः) यज्ञ करानेवालों के साथ (सम्) सम्यक् नियुक्त हों और (प्राणः) प्राण (वातेन) पवित्र वायु के सङ्ग (सङ्गच्छताम्) उत्तमता से रमण करे और तू (यज्ञपतिः) विद्याप्रचाररूपी यज्ञ का पालन करने हारा हो ॥१०॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो यज्ञ में दी हुई आहुति हैं, वे सूर्य के उपस्थित रहती हैं अर्थात् सूर्य की आकर्षण शक्ति से परमाणुरूप होकर सब पदार्थ पृथिवी के ऊपर आकाश में हैं, उसी पृथिवी का जल ऊपर खिंचकर वर्षा होती है, उस वर्षा से अन्न और अन्न से सब जीवों को सुख होता है, इस परम्परा सम्बन्ध से यज्ञशोधित जल और होम किये द्रव्य को सब जीव भोगते हैं ॥१०॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथोपनीतेन शिष्येण विद्यासुशिक्षाग्रहणाग्निहोत्रादियज्ञोऽवश्यमनुष्ठातव्य इति गुरुरुपदिशेत् ॥

अन्वय:

(अपाम्) जलानाम् (पेरुः) रक्षकः (असि) (आपः) (देवीः) शुद्धा दिव्यसुखप्रदाः (स्वदन्तु) (स्वात्तम्) स्वेन समन्तात् गृहीतम् (चित्) अपि (सत्) (देवहविः) देवेभ्यो हविरिव (सम्) (ते) तव (प्राणः) (वातेन) पवनेन सह (गच्छताम्) (अङ्गानि) शिर आदीनि (यजत्रैः) यज्ञसाधकैर्विद्वद्भिः सह (यज्ञपतिः) यज्ञस्य पालकः (आशिषा) अयं मन्त्रः (शत०३.७.४.६-९) व्याख्यातः ॥१०॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे शिष्य त्वमपां पेरुरसि संसारस्थाः प्राणिनस्त्वद्यज्ञशोधिता देवीरापश्चित् स्वात्तं धर्मानुष्ठानस्वीकृतं देवहविरिव संस्वदन्तु मदाशिषा तवाङ्गानि यजत्रैः सह गच्छन्ताम्, प्राणो वातेन संगच्छताम्, त्वं यज्ञपतिर्भव ॥१०॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। या यज्ञे प्रास्ताहुतयस्ता आदित्यमुपतिष्ठन्ते, आदित्याकर्षणशक्त्या पृथिवीजलाकर्षणेन वृष्टिर्भवति, ततोऽन्नमन्नाद् भूतानीति परम्परासम्बन्धेन यज्ञशोधिता अपो हुतद्रव्यं च सर्वे जीवा भुञ्जते ॥१०॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. यज्ञात दिलेली आहुती सूर्यापर्यंत पोहोचते. अर्थात सूर्याच्या आकर्षण शक्तीने परमाणुरूप बनून सर्व पदार्थ पृथ्वीवरून आकाशात जातात. पृथ्वीचे जलही अंतरिक्षात ओढून घेतले जाते व नंतर पर्जन्यरूपाने पृथ्वीवर येते. त्या वृष्टीमुळे अन्न प्राप्त होते. अन्नामुळे सर्व जीव सुखी होतात. या क्रमानुसार यज्ञाने शुद्ध झालेले जल व होमात अर्पण केलेले द्रव्य सर्व जीव भोगतात.