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उ॒रु वि॑ष्णो॒ विक्र॑मस्वो॒रु क्षया॑य नस्कृधि। घृतं घृ॑तयोने पिब॒ प्रप्र॑ य॒ज्ञप॑तिं तिर॒ स्वाहा॑ ॥३८॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

उ॒रु। वि॒ष्णो॒ऽइति॑ विष्णो। वि। क्र॒म॒स्व॒। उ॒रु। क्षया॑य। नः॒। कृ॒धि॒। घृ॒तम्। घृ॒त॒यो॒न॒ इति॑ घृतऽयोने। पि॒ब॒। प्रप्रेति॒ प्रऽप्र॑। य॒ज्ञप॑ति॒मिति॑ य॒ज्ञऽप॑तिम्। ति॒र॒। स्वाहा॑ ॥३८॥

यजुर्वेद » अध्याय:5» मन्त्र:38


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वे कैसे हैं, यह उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - जैसे सर्वव्यापक परमेश्वर सब जगत् की रचना करता हुआ जगत् के कारण को प्राप्त हो सब को रचता है, वैसे हे विद्यादि गुणों में व्याप्त होनेवाले वीर पुरुष ! अपने विद्या के फल को (उरु) बहुत (वि) अच्छी तरह (क्रमस्व) पहुँच (क्षयाय) निवास करने योग्य गृह और विज्ञान की प्राप्ति के योग्य (नः) हम लोगों को (कृधि) कीजिये। हे (घृतयोने) विद्यादि सुशिक्षायुक्त पुरुष ! जैसे अग्नि घृत पी के प्रदीप्त होता है, वैसे तू भी अपने गुणों में (घृतम्) घृत को (प्रप्र पिब) वारंवार पी के शरीर बलादि से प्रकाशित हो और ऋत्विज् आदि विद्वान् लोग (यज्ञपतिम्) यजमान की रक्षा करते हुए उसे यज्ञ से पार करते हैं, वैसे तू भी (स्वाहा) यज्ञ की क्रिया से यज्ञ के (तिर) पार हो ॥३८॥
भावार्थभाषाः - जैसे परमेश्वर अपनी व्यापकता से कारण को प्राप्त हो सब जगत् के रचने और पालने से सब जीवों को सुख देता है, वैसे आनन्द में हम सभों को रहना उचित है। जैसे अग्नि काष्ठ आदि इन्धन वा घृत आदि पदार्थों को प्राप्त हो प्रकाशमान होता है, वैसे हम लोगों को भी शत्रुओं को जीत प्रकाशित होना चाहिये, और जैसे होता आदि विद्वान् लोग धार्मिक यज्ञ करनेवाले यजमान को पाकर अपने कामों को सिद्ध करते हैं, वैसे प्रजास्थ लोग धर्मात्मा सभापति को पाकर अपने-अपने सुखों को सिद्ध किया करें ॥३८॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

(उरु) बहु (विष्णो) यथा सर्वव्यापकेश्वरः सर्वं जगन्निर्मातुं तथा (विक्रमस्व) गच्छ (उरु) बहु (क्षयाय) निवासार्थाय गृहाय विज्ञानादिप्राप्तये वा (नः) अस्मान् (कृधि) कुरु (घृतम्) आज्यम् (घृतयोने) यथा घृतयोनिरग्निस्तथा तत्सम्बुद्धौ (पिब) (प्रप्र) प्रकृष्टार्थे (यज्ञपतिम्) यथा होत्रादयो यज्ञपतिं रक्षन्तो यतन्ते तथा (तिर) प्लवस्व (स्वाहा) यज्ञक्रियायाः। अयं मन्त्रः (शत०३.६.३.१५) व्याख्यातः ॥३८॥

पदार्थान्वयभाषाः - यथा विष्णुर्विक्रमते तथोरु विक्रमस्व नः क्षयाय उरु कृधि, हे घृतयोने ! यथाग्निराज्यं पिबति तथा त्वं प्रप्रपिब, यथा च ऋत्विगादयो यज्ञपतिं संरक्ष्य दुःखं तरन्ति, तथा त्वं स्वाहा वाचं वदन् सन् विजयेन यज्ञेन यज्ञं प्रप्रतिर ॥३८॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। यथा परमेश्वरो व्यापकत्वात्सर्वं जगद्रचितुं रक्षितुं समर्थः सर्वान् सुखयति, तथानन्दयितव्यम्। यथा चाग्निरिन्धनानि प्रदहति तथा शत्रवः प्रदग्धव्याः। यथा होत्रादयो धार्मिकं यज्ञपतिं प्राप्य स्वकार्य्याणि साध्नुवन्ति, तथा प्रजास्थाः पुरुषा धर्मात्मानं सभापतिं प्राप्य सुखानि साध्नुवन्तु ॥३८॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - परमेश्वर व्यापक असून, सर्व जगाची उत्पती करताना प्रकृतीरूपी मूळ कारणांपासून करतो सर्व जीवांचे पालन करून त्यांना जसे सुखी करतो तसे आपणही सुखी व आनंदी राहावे. लाकूड इत्यादी इंधन किंवा घृत इत्यादी पदार्थांमुळे अग्नी जसा (प्रकाशित) प्रज्वलित होतो तसेच आपणही शत्रूंना जिंकून प्रकाशवान (प्रसिद्ध) व्हावे. होता इत्यादी विद्वान लोक ज्याप्रमाणे धर्मयज्ञ करणाऱ्या यजमानामुळे आपले कार्य पूर्ण करतात त्याप्रमाणेच प्रजेनेही धर्मात्मा राजाच्या सान्निध्याने आपले सुख प्राप्त करावे.