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अ॒यं नो॑ऽअ॒ग्निर्वरि॑वस्कृणोत्व॒यं मृधः॑ पु॒रऽए॑तु प्रभि॒न्दन्। अ॒यं वाजा॑ञ्जयतु॒ वाज॑साताव॒यꣳ शत्रू॑ञ्जयतु॒ जर्हृ॑षाणः॒ स्वाहा॑ ॥३७॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒यम्। नः॒। अ॒ग्निः। वरि॑वः। कृ॒णो॒तु॒। अ॒यम्। मृधः॑। पु॒रः। ए॒तु॒। प्र॒भि॒न्दन्निति॑ प्रऽभि॒न्दन्। अ॒यम्। वाजा॑न्। ज॒य॒तु॒। वाज॑साता॒विति॒ वाज॑ऽसातौ। अ॒यम्। शत्रू॑न्। ज॒य॒तु॒। जर्हृ॑षाणः। स्वाहा॑ ॥३७॥

यजुर्वेद » अध्याय:5» मन्त्र:37


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर ईश्वर की उपासना करने हारे शूरवीर के गुणों का उपदेश किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अयम्) यह परमेश्वर का उपासक जन (नः) हम प्रजास्थ जीवों की (वरिवः) निरन्तर रक्षा (कृणोतु) करे। जैसे कोई वीर पुरुष अपनी सेना को लेकर संग्राम में (मृधः) निन्दित दुष्ट वैरियों को पहिले ही जा घेरता है, वैसे (अयम्) यह युद्ध करने में कुशल सेनापति (वाजसातौ) संग्राम में दुष्ट शत्रुओं को (पुरः) पहिले ही (एतु) जा घेरे और जैसे (अयम्) यह वीरों को हर्ष देनेवाला सेनापति दुष्ट शत्रुओं को (प्रभिन्दन्) छिन्न-भिन्न करता हुआ (वाजान्) संग्रामों को (जयतु) जीते (अयम्) यह विजय करानेवाला सेनापति (जर्हृषाणः) निरन्तर प्रसन्न होकर (स्वाहा) युद्ध के प्रबन्ध की श्रेष्ठ बोलियों को बोलता हुआ (जयतु) अच्छी तरह जीते ॥३७॥
भावार्थभाषाः - जो लोग परमेश्वर की उपासना नहीं करते हैं, उनका विजय सर्वत्र नहीं होता। जो अच्छी शिक्षा देकर शूरवीर पुरुषों का सत्कार करके सेना नहीं रखते हैं, उनका सब जगह सहज में पराजय हो जाता है। इससे मनुष्यों को चाहिये कि दो प्रबन्ध अर्थात् एक तो परमेश्वर की उपासना और दूसरा वीरों की रक्षा सदा करते रहें ॥३७॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः शूरगुणा उपदिश्यन्ते ॥

अन्वय:

(अयम्) परमेश्वरोपासको जनः (नः) अस्माकं प्रजास्थानां जीवानाम् (अग्निः) स्वयं प्रकाशमानोऽग्निरिव पापिनां दग्धा (वरिवः) भृशं रक्षणम् (कृणोतु) करोतु (अयम्) युद्धकुशलः (मृधः) कुत्सितान् (पुरः) पुरस्तात् (एतु) गच्छतु (प्रभिन्दन्) यथा शत्रुदलं विदारयंस्तथा (अयम्) वीराणां प्रहर्षकः (वाजान्) संग्रामान् (वाजसातौ) यथा संग्रामे तथा (अयम्) विजयप्रापकः (शत्रून्) अरीन् (जयतु) (जर्हृषाणः) अतिशयेन हृष्टः (स्वाहा) शोभनां वाचं वदन सन्। अयं मन्त्रः (शत०३.६.३.१२) व्याख्यातः ॥३७॥

पदार्थान्वयभाषाः - अयमग्निः परमेश्वरोपासको जनो नो वरिवः कृणोतु, यथा कश्चिद्वीरः वाजसातौ मृधः शत्रून् पुर एति, तथायम्। यथा च कश्चिद्वीरो मृधः शत्रून् प्रभिन्दन् वाजान् जयति पुर एतु तथाऽयं जर्हृषाणः स्वाहा शोभनां वाचं वदन् जयतु ॥३७॥
भावार्थभाषाः - ये परेशोपासनां न विदधते नैव तेषां सर्वत्र विजयो जायते। ये सुशिक्षितान् वीरान् सत्कृत्य सेनां न रक्षन्ति, तेषां सर्वत्र पराजयो भवति, तस्मादेतद्वयं मनुष्यैः सदानुष्ठेयमिति ॥३७॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जे लोक परमेश्वराची उपासना करत नाहीत हे सर्व ठिकाणी विजयी ठरत नाहीत. जे चांगले शिक्षण घेऊन शूर व वीर अशा पुरुषांचा सन्मान करत नाहीत व सेना बाळगत नाहीत त्यांचा सगळीकडे पराभव होतो. त्यासाठी माणसांनी दोन प्रकारच्या गोष्टी कराव्यात, एक परमेश्वराची उपासना व दुसरी वीर पुरुषांचे रक्षण.