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यु॒ञ्जते॒ मन॑ऽउ॒त यु॑ञ्जते॒ धियो॒ विप्रा॒ विप्र॑स्य बृ॒ह॒तो वि॑प॒श्चितः॑। वि होत्रा॑ दधे वयुना॒विदेक॒ऽइन्म॒ही दे॒वस्य॑ सवि॒तुः परि॑ष्टुतिः॒ स्वाहा॑ ॥१४॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यु॒ञ्जते॑। मनः॑। उ॒त। यु॒ञ्ज॒ते॒। धियः॑। विप्राः॑। विप्र॑स्य। बृ॒ह॒तः। वि॒प॒श्चित॒ इति॑ विपः॒ऽचितः॑। वि। होत्राः॑। द॒धे॒। व॒यु॒ना॒वित्। व॒यु॒न॒विदिति॑ वयुन॒ऽवित्। एकः॑। इत्। म॒ही। दे॒वस्य॑। स॒वि॒तुः। परि॑ष्टुतिः। परि॑स्तुति॒रितिः॒। स्वाहा॑ ॥१४॥

यजुर्वेद » अध्याय:5» मन्त्र:14


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब अगले मन्त्र में योगी और ईश्वर के गुणों का उपदेश किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - जैसे जो (विहोत्राः) देने-लेनेवाले (विप्राः) बुद्धिमान् मनुष्य हैं, वे जिस (बृहतः) सब से बड़े (विप्रस्य) अनन्त ज्ञानकर्मयुक्त (विपश्चितः) सब विद्या सहित (सवितुः) सकल जगत् के उत्पादक (देवस्य) सब के प्रकाश करनेवाले महेश्वर की (मही) बड़ी (परिष्टुतिः) सब प्रकार की स्तुतिरूप (स्वाहा) सत्यवाणी को जान उस में (मनः) मन को (युञ्जते) युक्त करते हैं (उत) और (धियः) बुद्धियों को भी (युञ्जते) स्थिर करते हैं, वैसे (वयुनावित्) उत्तम कर्मों को जाननेवाला (एकः) सहायरहित मैं उस को जान उसमें अपना मन और बुद्धि को (विदधे) सदा निश्चल विधान कर रखता हूँ ॥१४॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को उचित है कि परमेश्वर में ही मन, बुद्धि को युक्त कर विद्वानों के सङ्ग से विद्या को पा सुखी हो, अन्य मनुष्यों को भी इसी प्रकार आनन्दित करें ॥१४॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ योगीश्वरगुणा उपदिश्यन्ते।

अन्वय:

(युञ्जते) समादधते (मनः) चित्तम् (उत) अपि (युञ्जते) स्थिराः कुर्वते (धियः) बुद्धीः कर्माणि वा (विप्राः) मेधाविनः। विप्र इति मेधाविनामसु पठितम्। (निघं०३.१५) (विप्रस्य) अनन्तप्रज्ञाकर्मणो जगदीश्वरस्य। (बृहतः) व्यापकस्य वा (विपश्चितः) अनन्तविद्यस्य परमविद्यस्य परमविदुषो वा (वि) विविधार्थे (होत्राः) ये जुह्वत्याददति वा ते (दधे) धरे वृणोमि कथयामि वा (वयुनावित्) यो वयुनानि प्रशस्तानि कर्माणि वेत्ति सः। वयुनमिति प्रशस्यनामसु पठितम्। (निघं०३.८) अत्र अन्येषामपि दृश्यते [अष्टा०६.३.१३७] इति दीर्घः। (एकः) असहायः (इत्) एव (मही) महती (देवस्य) सर्वप्रकाशकस्य (सवितुः) सकलोत्पादकस्य (परिष्टुतिः) परितः सर्वतः स्तूयते यया सा (स्वाहा) सत्यां वाचम्। अयं मन्त्रः (शत०३.५.३.११-१२) व्याख्यातः ॥१४॥

पदार्थान्वयभाषाः - यथा विहोत्रा विप्राः सन्ति ते या बृहतो विप्रस्य विपश्चितः सवितुर्देवस्य यस्य महेश्वरस्य मही परिष्टुतिस्वरूपा स्वाहास्ति, तां विज्ञायैतस्मिन्निदेव मनो युञ्जत उतापि धियो युञ्जते, तथैवैतां विदित्वास्मिन् वयुनाविदेकोऽहं मनो युञ्जे धियं च ॥१४॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। परमेश्वर एव मनो धियश्च समाधाय विदुषां सङ्गेन विद्यां प्राप्यान्येभ्य एवमेवोपदेष्टव्म् ॥१४॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसांनी मन व बुद्धी परमेश्वरातच युक्त करून विद्वानांच्या संगतीने विद्या प्राप्त करावी व सुखी व्हावे आणि इतरांनाही सुखी करावे.