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त्वम॑ग्ने व्रत॒पाऽअ॑सि दे॒वऽआ मर्त्ये॒ष्वा। त्वं य॒ज्ञेष्वीड्यः॑। रास्वेय॑त्सो॒मा भूयो॑ भर दे॒वो नः॑ सवि॒ता वसो॑र्दा॒ता वस्व॑दात् ॥१६॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

त्वम्। अ॒ग्ने॒। व्र॒त॒पा॒ इति॑ व्रत॒ऽपाः। अ॒सि॒। दे॒वः। आ। मर्त्त्ये॑षु। आ। त्वम्। य॒ज्ञेषु॑। ईड्यः॑। रास्व॑। इय॑त्। सो॒म। आ। भूयः॑। भ॒र॒। दे॒वः। नः॒। स॒वि॒ता। वसोः॑। दा॒ता। वसु॑। अ॒दा॒त् ॥१६॥

यजुर्वेद » अध्याय:4» मन्त्र:16


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वे कैसे हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (सोम) ऐश्वर्य्य के देनेवाले (अग्ने) जगदीश्वर ! जो (त्वम्) आप (मर्त्त्येषु) मनुष्यों में (व्रतपाः) सत्य धर्माचरण की रक्षा (सविता) सब जगत् को उत्पन्न करने (यज्ञेषु) सत्कार वा उपासना आदि में (ईड्यः) स्तुति के योग्य (नः) हम लोगों के लिये (वसोः) धन के (दाता) दान करनेवाले (वसु) धन को (अदात्) देते हैं, सो (इयत्) प्राप्त करते हुए आप (भूयः) बारंबार अत्यन्त धन (आरास्व) दीजिये (आभर) सब सुखों से पोषण कीजिये ॥१॥१६॥ (त्वम्) जो (अग्ने) अग्नि (मर्त्त्येषु) मरण धर्मवाले मनुष्यों के कार्यों में (व्रतपाः) नियमाचरण का पालन (देवः) प्रकाश करने (यज्ञेषु) अग्निहोत्रादि यज्ञों में (ईड्यः) खोजने योग्य (सोमः) ऐश्वर्य को देने (सविता) जगत् को प्रेरणा करने (देवः) प्रकाशमान अग्नि है, वह (नः) हम लोगों के लिये (वसोः) धन को (दाता) प्राप्त (इयत्) कराता हुआ (भूयः) अत्यन्त (वसु) धन को (अदात्) देता और (आरास्व) धन को देने का निमित्त होके (आभर) सब प्रकार के सुखों को धारण करता है ॥२॥१६॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। सब मनुष्यों को उचित है कि जैसे सत्यस्वरूप सब जगत् को उत्पन्न करने और सकल सुखों के देनेवाले जगदीश्वर ही की उपासना को करके सुखी रहें। इसी प्रकार कार्यसिद्धि के लिये अग्नि को संप्रयुक्त करके सब सुखों को प्राप्त करें ॥१६॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

(त्वम्) स वा (अग्ने) जगदीश्वर ! अग्निर्वा (व्रतपाः) यो व्रतं सत्यं धर्माचरणनियमं पाति रक्षतीति (असि) अस्ति वा। अत्र पक्षे व्यत्ययः (देवः) दाता प्रकाशको वा (आ) समन्तात् (मर्त्त्येषु) मरणधर्मेषु मनुष्येषु कार्य्येषु वा (आ) अभितः (त्वम्) स वा (यज्ञेषु) सत्कारेषूपासनादिष्वग्निहोत्रादिषु शिल्पेषु वा (ईड्यः) स्तोतुमध्येषितुं वाऽर्हः (रास्व) देहि, ददाति वा (इयत्) प्राप्नुवन् (सोम) ऐश्वर्य्यप्रदैश्वर्य्यहेतुर्वा (आ) अभितः (भूयः) अतिशयेन बहुः (भर) भरति वा (देवः) द्योतकः (नः) अस्मभ्यम् (सविता) सर्वस्य जगत उत्पादकः प्रेरको वा (वसोः) धनस्य (दाता) प्रापकः (वसु) धनम् (अदात्) ददाति। अयं मन्त्रः (शत०३.२.२.२४-२५) व्याख्यातः ॥१६॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे सोमग्ने ! यस्त्वं मर्त्त्येषु व्रतपा सविता यज्ञेष्वीड्यो देवोऽसि, स भवान्नोऽस्मभ्यं वसोर्दाता सन् वस्वदाद् विज्ञानधनं ददाति, स भूयो वस्वारास्वेयत् सँस्त्वमेतान्यस्मदर्थमाभरेत्येकः ॥१॥१६॥ योऽग्नेऽयमग्निर्मर्त्त्येषु व्रतपाः सविता यज्ञेष्वीड्योऽध्येषितव्यः सोमो देवोऽस्ति, स नोऽस्मभ्यं वसोर्दातेयत् सन् भूयः सर्वकार्य्येष्वारास्वारासते, आभराभितः सुखैर्भरति पुष्णातीति द्वितीयः ॥२॥१६॥
भावार्थभाषाः - अत्र श्लेषालङ्कारः। सर्वैर्मनुष्यैः सत्यस्वरूपस्य पूजार्हस्य सर्वजगदुत्पादकस्य सकलसुखप्रदातुः परमेश्वरस्यैवोपासनां कृत्वा सुखयितव्यम्, एवं च कार्य्यसिद्धये भौतिकमग्निं संप्रयोज्य सर्वाणि सुखानि प्राप्तव्यानीति ॥१६॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. सर्व माणसांनी सत्यस्वरूप व सर्व जगाला उत्पन्न करणाऱ्या आणि सर्व सुख देणाऱ्या ईश्वराची उपासना करून सुखी व्हावे. तसेच कार्यसिद्धीसाठी अग्नीला चांगल्या प्रकारे प्रयुक्त करून सर्व सुख प्राप्त करावे.