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याव॑ती॒ द्यावा॑पृथि॒वी याव॑च्च स॒प्त सिन्ध॑वो वितस्थि॒रे। ताव॑न्तमिन्द्र ते॒ ग्रह॑मू॒र्जा गृ॑ह्णा॒म्यक्षि॑तं॒ मयि॑ गृह्णा॒म्यक्षि॑तम् ॥२६ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

याव॑ती॒ऽइति॒ याव॑ती। द्यावा॑पृथि॒वीऽइति॒ द्यावा॑पृथि॒वी। याव॑त्। च॒। स॒प्त। सिन्ध॑वः। वि॒त॒स्थि॒रे इति॑ विऽतस्थि॒रे ॥ ताव॑न्तम्। इ॒न्द्र॒। ते॒। ग्र॑हम्। ऊ॒र्जा। गृ॒ह्णा॒मि॒। अक्षि॑तम्। मयि॑। गृ॒ह्णा॒मि॒। अक्षि॑तम् ॥२६ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:38» मन्त्र:26


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर विद्वान् लोग क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) विद्युत् के समान वर्त्तमान परमेश्वर ! (ते) आपकी (यावती) जितनी (द्यावापृथिवी) सूर्य-भूमि (च) और (यावत्) जितने बड़े (सप्त) (सिन्धवः) सात समुद्र (वितस्थिरे) विशेषकर स्थित हैं, (तावन्तम्) उतने (अक्षितम्) नाशरहित (ग्रहम्) ग्रहण के साधनरूप सामर्थ्य को (ऊर्जा) बल के साथ मैं (गृह्णामि) स्वीकार करता तथा उतने (अक्षितम्) नाशरहित सामर्थ्य को मैं (मयि) अपने में (गृह्णामि) ग्रहण करता हूँ ॥२६ ॥
भावार्थभाषाः - विद्वानों को योग्य है कि जहाँ तक हो सके, वहाँ तक पृथिवी और बिजुली आदि के गुणों को ग्रहण कर अक्षय सुख को प्राप्त होवें ॥२६ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्विद्वांसः किं कुर्य्युरित्याह ॥

अन्वय:

(यावती) यावत्परिमाणे (द्यावापृथिवी) भूमिसूर्यौ (यावत्) यावत्परिमाणाः (च) (सप्त) सप्त (सिन्धवः) समुद्राः (वितस्थिरे) विशेषेण तिष्ठन्ति (तावन्तम्) (इन्द्र) विद्युदिव वर्त्तमान (ते) तव (ग्रहम्) गृह्णाति तेन तम् (ऊर्जा) बलेन (गृह्णामि) (अक्षितम्) क्षयरहितम् (मयि) (गृह्णामि) (अक्षितम्) नाशरहितम् ॥२६ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे इन्द्र ! ते यावती द्यावापृथिवी यावच्च सप्त सिन्धवो वितस्थिरे, तावन्तमक्षितं ग्रहमूर्जाऽहं गृह्णामि तावन्तमक्षितमहं मयि गृह्णामि ॥२६ ॥
भावार्थभाषाः - विद्वद्भिर्यावच्छक्यं तावत्पृथिवीविद्युदादिगुणान् गृहीत्वाऽक्षयं सुखमाप्तव्यम् ॥२६ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - विद्वानांनी जोपर्यंत होईल तोपर्यंत पृथ्वी व विद्युत इत्यादींचे गुणग्रहण करून सतत सुख प्राप्त करावे.