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अप॑श्यं गो॒पामनि॑पद्यमान॒मा च॒ परा॑ च प॒थिभि॒श्चर॑न्तम्। स स॒ध्रीचीः॒ स विषू॑ची॒र्वसा॑न॒ऽआ व॑रीवर्त्ति॒ भुव॑नेष्व॒न्तः ॥१७ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अप॑श्यम्। गो॒पाम्। अनि॑पद्यमान॒मित्यनि॑ऽपद्यमानम्। आ। च॒। परा॑। च॒। प॒थिभि॒रिति॑ प॒थिऽभिः॑। चर॑न्तम् ॥ सः। स॒ध्रीचीः। सः। विषू॑चीः। वसा॑नः। आ। व॒री॒व॒र्त्ति॒। भुव॑नेषु। अ॒न्तरित्य॒न्तः ॥१७ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:37» मन्त्र:17


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

ईश्वर के उपासक कैसे होते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! मैं जिस (पथिभिः) शुद्ध ज्ञान के मार्गों से (आ, चरन्तम्) अच्छे प्रकार प्राप्त होते हुए (परा) परभाग में भी प्राप्त होते हुए (अनिपद्यमानम्) अचल (गोपाम्) रक्षक जगदीश्वर को (अपश्यम्) देखूँ (स, च) वह भी (सध्रीचीः) साथ वर्त्तमान दिशाओं (च) और (सः) वह (विषूचीः) व्याप्त उपदिशाओं को (वसानः) आच्छादित करनेवाला हुआ (भुवनेषु) लोक-लोकान्तरों के (अन्तः) बीच (आ, वरीवर्त्ति) अच्छे प्रकार सबका आवरण करता वा वर्त्तमान है, उसको आप लोग भी देखो ॥१७ ॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य सब लोकों में अभिव्यापी अन्तर्यामी रूप से प्राप्त अधर्मी अविद्वान् और अयोगी लोगों के न जानने योग्य परमात्मा को जानकर अपने आत्मा के साथ युक्त करते हैं, वे सब धर्मयुक्त मार्गों को प्राप्त होकर शुद्ध होते हैं ॥१७ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

ईश्वरोपासकाः कीदृशा भवन्तीत्याह ॥

अन्वय:

(अपश्यम्) पश्येयम् (गोपाम्) रक्षकम् (अनिपद्यमानम्) अपदनशीलमचलम् (आ) (च) (परा) (च) (पथिभिः) ज्ञानमार्गैः (चरन्तम्) प्राप्नुवन्तम् (सः) (सध्रीचीः) सह वर्त्तमानाः (सः) (विषूचीः) व्याप्ताः (वसानः) आच्छादकः (आ) (वरीवर्त्ति) समन्ताद् भृशमावृणोति समन्ताद् वर्त्तते वा (भुवनेषु) लोकलोकान्तरेषु (अन्तः) मध्ये ॥१७ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्याः ! अहं यं पथिभिराचरन्तं पराचरन्तमनिपद्यमानं गोपां जगदीश्वरमपश्यम्, स च सध्रीचीः स च विषूचीर्वसानः सन् भुवनेष्वन्तरावरीवर्ति, तं यूयमपि पश्यत ॥१७ ॥
भावार्थभाषाः - ये मनुष्याः सर्वलोकाभिव्यापिनमन्तर्यामिरूपेण प्राप्तमधार्मिकैरविद्वद्भिरयोगिभिरविज्ञेयं परमात्मानं विज्ञायात्मना युञ्जते, ते सर्वान् धर्म्यान् मार्गान् प्राप्य विशुध्यन्ति ॥१७ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - अधार्मिक, मूर्ख व योगरहित माणसे परमेश्वराला जाणू शकत नाहीत; परंतु अंतर्यामी व्याप्त असलेल्या व सर्व लोक लोकांतरातही व्याप्त असलेल्या परमेश्वराला जाणून जी माणसे त्याला आपल्या आत्म्याबरोबर युक्त करतात ती माणसे धर्मयुक्त मार्गाचे अनुसरण करून पवित्र होतात.