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आ रा॑त्रि॒ पार्थि॑व॒ꣳ रजः॑ पि॒तुर॑प्रायि॒ धाम॑भिः। दि॒वः सदा॑सि बृह॒ती वि ति॑ष्ठस॒ऽआ त्वे॒षं व॑र्त्तते॒ तमः॑ ॥३२ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ। रा॒त्रि॒। पार्थि॑वम्। रजः॑। पि॒तुः। अ॒प्रा॒यि॒। धाम॑भि॒रिति॒ धाम॑ऽभिः ॥ दि॒वः। सदा॑सि। बृ॒ह॒ती। वि। ति॒ष्ठ॒से॒। आ। त्वे॒षम्। व॒र्त्त॒ते॒। तमः॑ ॥३२ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:34» मन्त्र:32


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब रात्रि का वर्णन अगले मन्त्र में करते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जो (बृहती) बड़ी (रात्रि) रात (दिवः) प्रकाश के (सदांसि) स्थानों को (वि, तिष्ठसे) व्याप्त होती है, जिस रात्रि ने (पितुः) अपने तथा सूर्य के मध्यस्थ लोक के (धामभिः) सब स्थानों के साथ (पार्थिवम्) पृथिवी सम्बन्धी (रजः) लोक को (आ, अप्रायि) अच्छे प्रकार पूर्ण किया है, जिसका (त्वेषम्) अपनी कान्ति से बढ़ा हुआ (तमः) अन्धकार (आ) (वर्त्तते) आता-जाता है, उसका युक्ति के साथ सेवन करो ॥३२ ॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! जो पृथिव्यादि की छाया रात्रि में प्रकाश को रोकती अर्थात् सबका आवरण करती है, उसका आप लोग यथावत् सेवन करें ॥३२ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ रात्रिवर्णनमाह ॥

अन्वय:

(आ) समन्तात् (रात्रि) रात्रिः। अत्र लिङ्गव्यत्ययः। (पार्थिवम्) पृथिव्याः सम्बन्धि (रजः) लोकः (पितुः) मध्यलोकस्य (अप्रायि) पूर्य्यन्ते (धामभिः) सर्वैः स्थानैः (दिवः) प्रकाशस्य (सदांसि) सीदन्ति येषु तान्यधिकरणानि (बृहती) महती (वि) (तिष्ठसे) तिष्ठते, आक्रमते, व्याप्नोति (आ) (त्वेषम्) स्वकान्त्या प्रकृष्टम् (वर्त्तते) (तमः) अन्धकारः ॥३२ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्याः ! या बृहती रात्रि दिवः सदांसि वितिष्ठसे, यया पितुर्धामभिः पार्थिवं रज आ अप्रायि, यस्याश्च त्वेषं तम आ वर्त्तते, तां युक्त्या सेवध्वम् ॥३२ ॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्याः ! या पृथिव्यादेश्छाया रात्रौ प्रकाशं निरोधयति, सर्वमावृणोति तां यथावत् सेवन्ताम् ॥३२ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो ! जी रात्र पृथ्वीवरील प्रकाश नाहीसा करते. अर्थात् रात्रीचे आच्छादन सर्वत्र असते तिचा योग्य रीतीने स्वीकार करा.