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द्वे विरू॑पे चरतः॒ स्वर्थे॑ऽअ॒न्यान्या॑ व॒त्समुप॑ धापयेते। हरि॑र॒न्यस्यां॒ भव॑ति स्व॒धावा॑ञ्छु॒क्रोऽअ॒न्यस्यां॑ दद्य्शे सु॒वर्चाः॑ ॥५ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

द्वेऽइति॑ द्वे। विरू॑पे॒ इति॒ विऽरू॑पे। च॒र॒तः॒। स्वर्थे॒ इति॑ सु॒ऽअर्थे॑। अ॒न्यान्येत्यन्याऽअ॑न्या। व॒त्सम्। उप॑। धा॒प॒ये॒ते॒ऽइति॑ धापयेते ॥ हरिः॑। अ॒न्यस्या॑म्। भव॑ति। स्व॒धावा॒निति॑ स्व॒धाऽवा॑न्। शु॒क्रः। अ॒न्यस्या॑म्। द॒दृ॒शे॒। सु॒वर्चा॒ इति॑ सु॒ऽवर्चाः॑ ॥५ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:33» मन्त्र:5


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

रात्रि दिन जगत् की रक्षा करनेवाले हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे (स्वर्थे) सुन्दर प्रयोजनवाली (द्वे) दो (विरूपे) भिन्न-भिन्न रूप की स्त्रियाँ (चरतः) भोजनादि आचरण करती हैं और (अन्यान्या) एक-एक अलग-अलग समय में (वत्सम्) निरन्तर बोलनेवाले एक बालक को (उप, धापयेते) निकट कर दूध पिलाती हैं, उन दोनों में से (अन्यस्याम्) एक में (स्वधावान्) प्रशस्त शान्ति आदि अमृत तुल्य गुणयुक्त (हरिः) मन को हरनेवाला पुत्र (भवति) होता और (शुक्रः) शीघ्रकारी (सुवर्चाः) सुन्दर तेजस्वी (अन्यस्याम्) दूसरी में हुआ (ददृशे) दीख पड़ता है, वैसे ही सुन्दर प्रयोजनवाले दो काले-श्वेत भिन्न रूपवाले रात्रि-दिन वर्त्तमान हैं और एक-एक भिन्न-भिन्न समय में एक संसाररूप बालक को दुग्धादि पिलाते हैं, उन दोनों में से एक रात्रि में अमृतरूप गुणोंवाला मन का प्रसादक चन्द्रमा उत्पन्न होता और द्वितीय दिनरूप वेला में पवित्रकर्त्ता सुन्दर तेजवाला सूर्यरूप पुत्र दीख पड़ता है, ऐसा तुम लोग जानो ॥५ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में अनुभयाभेदरूपकालङ्कार है। जैसे दो स्त्रियाँ वा गायें सन्तान प्रयोजनवाली पृथक्-पृथक् वर्त्तमान भिन्न-भिन्न समय में एक बालक की रक्षा करें, उन दोनों में से एक में हृदय को प्यारा, महागुणी, शान्तिशील बालक हो और दूसरी में शीघ्रकारी, तेजस्वी, शुत्रुओं को दुःखदायी बालक होवे; वैसे भिन्न स्वरूपवाले दो रात्रि-दिन अलग-अलग समय में एक संसारस्वरूप बालक की पालना करते हैं। किस प्रकारः—रात्रि अमृतवर्षक, चित्त को करनेहारे चन्द्रमारूप बालक को उत्पन्न करके और दिनरूप-स्त्री तेजोमय सुन्दर प्रकाशवाले सूर्य्यरूप पुत्र को उत्पन्न करके ॥५ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

रात्रिदिवसौ जगत्पालकावित्याह ॥

अन्वय:

(द्वे) (विरूपे) विरुद्धस्वरूपे (चरतः) (स्वर्थे) सुष्ठु अर्थः प्रयोजनं ययोस्ते (अन्यान्या) भिन्ना भिन्ना एकैका कालभेदेन (वत्सम्) वसन्ति भूतान्यस्मिंस्तं संसारं वदति सततमिति वत्सो बालस्तं वा (उप) (धापयेते) पाययतः (हरिः) मनोहारी चन्द्रो बालो वा (अन्यस्याम्) रात्रौ योषिति वा (भवति) (स्वधावान्) प्रशस्तस्वधा अमृतरूपा गुणा विद्यन्ते यस्मिन् सः (शुक्रः) पावकः सूर्य्य आशुकारी बालश्च (अन्यस्याम्) प्रकाशरूपायां दिवसवेलायां जायायां वा (ददृशे) दृश्यते (सुवर्चाः) सुष्ठु तेजाः ॥५ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्याः ! यथा स्वर्थे द्वे विरूपे स्त्रियौ चरतोऽन्यान्या च वत्समुपधापयेते तयोरन्यस्यां स्वधावान् हरिर्भवति शुक्रः सुवर्चा अन्यस्यां ददृशे तथा द्वे रात्र्यहनी वर्त्तत इति जानीत ॥५ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रानुभयाभेदरूपकोलङ्कारः। यथा द्वे स्त्रियौ वा गावावपत्यप्रयोजने पृथक् पृथग् वर्त्तमाने कालभेदेनैकं बालं पालयेतां तयोरेकस्या हृद्यो महागुणी शान्तिशीलो बालो जायेत। एकस्याञ्च शीघ्रकारी तेजस्वी शत्रुतापको बालो जायेत तथा द्वे रात्र्यहनी भिन्नस्वरूपे कालभेदेनैकं संसारं पालयतः। कथं रात्रिरमृतवर्षकं चित्तप्रसादकं चन्द्रमसमुत्पाद्य दिवसरूपा च पावकरूपं शोभनप्रकाशं सूर्यमुत्पाद्येति पूर्वान्वयः ॥५ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात अनुभयाभेदरूपकालंकार आहे. जशा दोन भिन्न भिन्न स्रिया (किंवा गाई) भिन्न भिन्न बालकाला वाढवितात. एकीमुळे एक शांतताप्रिय अमृतगुणयुक्त बालक बनते व दुसरीमुळे तेजस्वी व शत्रूंना दुःखदायी बालक असते. त्याप्रमाणे दिवस व रात्र या दोन स्रिया होत. त्या संसाररूपी बालकाचे पालन करतात. त्यापैकी रात्ररूपी स्री ही अमृतगुणी प्रसन्नचित्त चंद्ररुपी बालकाला उत्पन्न करते व दिवसरूपी स्री ही सूर्यरूपाने तेजस्वी बालकाला उत्पन्न करते.