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वि॒भ्राड् बृ॒हत् पि॑बतु सो॒म्यं मध्वायु॒र्दध॑द् य॒ज्ञप॑ता॒ववि॑ह्रुतम्। वात॑जूतो॒ योऽअ॑भि॒रक्ष॑ति॒ त्मना॑ प्र॒जाः पु॑पोष पुरु॒धा वि रा॑जति ॥३० ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

वि॒भ्राडिति॑ वि॒ऽभ्राट्। बृ॒हत्। पि॒ब॒तु॒। सो॒म्यम्। मधु॑। आयुः॑। दध॑त्। य॒ज्ञप॑ता॒विति॑ य॒ज्ञऽप॑तौ। अवि॑ह्रुत॒मित्यवि॑ऽह्रुतम् ॥ वात॑जूत॒ इति॒ वात॑ऽजूतः। यः। अ॒भि॒रक्ष॒तीत्य॑भि॒ऽरक्ष॑ति। त्मना॑। प्र॒जा इति॑ प्र॒ऽजाः। पु॒पो॒ष॒। पु॒रु॒धा। वि। रा॒ज॒ति॒ ॥३० ॥

यजुर्वेद » अध्याय:33» मन्त्र:30


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यः) जो (वातजूतः) वायु से वेग को प्राप्त सूर्य के तुल्य (विभ्राड्) विशेष कर प्रकाशवाला राजपुरुष (अविह्रुतम्) अखण्ड संपूर्ण (आयुः) जीवन (यज्ञपतौ) युक्तव्यवहारपालक अधिष्ठाता मैं (दधत्) धारण करता हुआ (त्मना) आत्मा से (प्रजाः) प्रजाओं को (अभिरक्षति) सब ओर से रक्षा करता हुआ (पुपोष) पुष्ट करता और (पुरुधा) बहुत प्रकारों से (वि, राजति) विशेषकर प्रकाशमान होता है, सो आप (बृहत्) बड़े (सोम्यम्) सोमादि ओषधियों के (मधु) मिष्टादि गुणयुक्त रस को (पिबतु) पीजिये ॥३० ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे राजादि मनुष्यो ! जैसे सूर्य्य वृष्टि द्वारा सब जीवों के जीवन-पालन को करता है, उसके तुल्य उत्तम गुणों से महान् हो के न्याय और विनय से प्रजाओं की निरन्तर रक्षा करो ॥३० ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(विभ्राट्) यो विशेषेण भ्राजते सः (बृहत्) महत् (पिबतु) (सोम्यम्) सोमेष्वोषधीषु भवं रसम् (मधु) मधुरादिना गुणेन युक्तम् (आयुः) जीवनम् (दधत्) धरन् (यज्ञपतौ) यज्ञस्य युक्तस्य व्यवहारस्य पालके स्वामिनि (अविह्रुतम्) अखण्डितम् (वातजूतः) वायुना प्राप्तवेगः (यः) (अभिरक्षति) (त्मना) आत्मना (प्रजाः) (पुपोष) पुष्णाति (पुरुधा) बहुधा (वि) (राजति) विशेषेण प्रकाशते ॥३० ॥

पदार्थान्वयभाषाः - यो वातजूतः सूर्य इव विभ्राडविह्रुतमायुर्यज्ञपतौ दधत् त्मना प्रजा अभिरक्षति पुपोष पुरुधा विराजति च स भवान् बृहत् सोम्यं मधु पिबतु ॥३० ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे राजादयो मनुष्याः ! यथा सूर्य्यो वृष्टिद्वारा सर्वेषां जीवनं पालनं करोति तद्वत् सद्गुणैर्महान्तो भूत्वा न्यायविनयाभ्यां प्रजाः सततं रक्षन्तु ॥३० ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे राजांनो ! सूर्य जसा वृष्टीद्वारे सर्व जीवांचे पालन करतो तसे उत्तम गुणयुक्त श्रेष्ठ बनून न्यायाने व विनयाने प्रजेचे सदैव रक्षण करा.