वांछित मन्त्र चुनें

तव॒ शरी॑रं पतयि॒ष्ण्व᳖र्व॒न्तव॑ चि॒त्तं वात॑ऽइव॒ ध्रजी॑मान्। तव॒ शृङ्गा॑णि॒ विष्ठि॑ता पुरु॒त्रार॑ण्येषु॒ जर्भुराणा चरन्ति ॥२२ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

तव॑। शरी॑रम्। प॒त॒यि॒ष्णु। अ॒र्व॒न्। तव॑। चि॒त्तम्। वात॑ इ॒वेति॒ वातः॑ऽइव। ध्रजी॑मान्। तव॑। शृङ्गा॑णि। विष्ठि॑ता। विस्थि॒तेति॒ विऽस्थि॑ता। पु॒रु॒त्रेति॑ पुरु॒ऽत्रा। अर॑ण्येषु। जर्भु॑राणा। च॒र॒न्ति॒ ॥२२ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:29» मन्त्र:22


बार पढ़ा गया

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्यों को अनित्य शरीर पाके क्या करना चाहिए, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अर्वन्) घोड़े के तुल्य वर्त्तमान वीर पुरुष ! जिस (तव) तेरा (पतयिष्णु) नाशवान् (शरीरम्) शरीर (तव) तेरे (चित्तम्) अन्तःकरण की वृत्ति (वात इव) वायु के सदृश (ध्रजीमान्) वेगवाली अर्थात् शीघ्र दूरस्थ विषयों के तत्त्व जाननेवाली (तव) तेरे (पुरुत्रा) बहुत (अरण्येषु) जंगलों में (जर्भुराणा) शीघ्र धारण-पोषण करनेवाले (विष्ठिता) विशेषकर स्थित (शृङ्गाणि) शृङ्गों के तुल्य ऊँचे सेना के अवयव (चरन्ति) विचरते हैं सो तू धर्म का आचरण कर ॥२२ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो मनुष्य अनित्य शरीरों में स्थित हो नित्य कार्य्यों को सिद्ध करते हैं, वे अतुल सुख पाते हैं और जो वन के पशुओं के तुल्य भृत्य और सेना हैं, वे घोड़े के तुल्य शीघ्रगामी होके शत्रुओं को जीतने को समर्थ होते हैं ॥२२ ॥
बार पढ़ा गया

संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्यैरनित्यं शरीरं प्राप्य किं कार्यमित्याह ॥

अन्वय:

(तव) (शरीरम्) (पतयिष्णु) पतनशीलम् (अर्वन्) अश्व इव वर्त्तमान (तव) (चित्तम्) अन्तःकरणम् (वात इव) वायुवत् (ध्रजीमान्) वेगवान् (तव) (शृङ्गाणि) शृङ्गाणीवोच्छृतानि सेनाङ्गानि (विष्ठिता) विशेषेण स्थितानि (पुरुत्रा) पुरुषु बहुषु (अरण्येषु) जङ्गलेषु (जर्भुराणा) भृशं पोषकाणि धारकाणि (चरन्ति) गच्छन्ति ॥२२ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे अर्वन् वीर ! यस्य तव पतयिष्णु शरीरं तव चित्तं वात इव ध्रजीमान् तव पुरुत्रारण्येषु जर्भुराणा विष्ठिता शृङ्गाणि चरन्ति, स त्वं धर्ममाचर ॥२२ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। ये मनुष्या अनित्येषु शरीरेषु स्थित्वा नित्यानि कार्याणि साध्नुवन्ति, तेऽतुलसुखमाप्नुवन्ति। ये वनस्थाः प्शव इव भृत्याः सेनाश्च वर्त्तन्ते, तेऽश्ववत् सद्योगामिनो भूत्वा शत्रन् विजेतुं शक्नुवन्ति ॥२२ ॥
बार पढ़ा गया

मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जी माणसे अनित्य शरीरात राहून नित्य कर्मे करतात ती अत्यंत सुखी होतात. जे सेवक वनपशूप्रमाणे असतात व सेना घोड्याप्रमाणे असते ते शीघ्रगामी बनून शत्रूंना जिंकण्यास समर्थ ठरतात.