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दे॒वी जोष्ट्री॒ वसु॑धिती दे॒वमिन्द्रं॑ वयो॒धसं॑ दे॒वी दे॒वम॑वर्धताम्। बृ॒ह॒त्या छन्द॑सेन्द्रि॒य श्रोत्र॒मिन्द्रे॒ वयो॒ दध॑द् वसु॒वने॑ वसु॒धेय॑स्य वीतां॒ यज॑ ॥३८ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

दे॒वीऽइति॑ दे॒वी। जोष्ट्री॒ऽइति॑ जोष्ट्री॑। वसु॑धिती॒ इति॒ वसु॑ऽधिती। दे॒वम्। इन्द्र॑म्। व॒यो॒धस॒मिति॑ वयः॒ऽधस॑म्। दे॒वीऽइति॑ दे॒वी। दे॒वम्। अ॒व॒र्ध॒ता॒म्। बृ॒ह॒त्या। छन्द॑सा। इ॒न्द्रि॒यम्। श्रोत्र॑म्। इन्द्रे॑। वयः॑। दध॑त्। व॒सु॒वन॒ इति॑ वसु॒ऽवने॑। व॒सु॒धेय॒स्येति॑ वसु॒ऽधेय॑स्य। वी॒ता॒म्। यज॑ ॥३८ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:28» मन्त्र:38


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब स्त्रीपुरुष क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् जन ! जैसे (देवी) तेजस्विनी (जोष्ट्री) प्रीतिवाली (वसुधिति) विद्या को धारण करने हारी पढ़ने पढ़ानेवाली दो स्त्रियाँ (वयोधसम्) अवस्थावाले (देवम्) दिव्य गुण युक्त (इन्द्रम्) अन्नदाता अपने सन्तान को जैसे (देवी) धर्मात्मा स्त्री (देवम्) अपने धर्मनिष्ठ पति को वैसे प्राप्त हो के (अवर्धताम्) उन्नति को प्राप्त हो (बृहत्या छन्दसा) बृहती छन्द से (इन्द्रे) जीवात्मा में (इन्द्रियम्) ईश्वर ने रचे हुए (श्रोत्रम्) शब्द सुनने के हेतु कान को (वीताम्) व्याप्त हों, वैसे (वसुधेयस्य) धन के आधार कोष के (वसुवने) धन की चाहना के अर्थ (वयः) उत्तम मनोहर सुख को (दधत्) धारण करते हुए (यज) यज्ञादि कीजिए ॥३८ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जैसे पढ़ाने और उपदेश करनेवाली स्त्रियाँ अपने सन्तानों, अन्य कन्याओं वा स्त्रियों को विद्या तथा शिक्षा से बढ़ाती हैं, वैसे ही स्त्री-पुरुष परम प्रीति से विद्या के विचार के साथ अपने सन्तानों को बढ़ावें और आप बढ़ें ॥३८ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ स्त्रीपुरुषौ किं कुर्यातामित्याह ॥

अन्वय:

(देवी) देदीप्यमाने (जोष्ट्री) प्रीतिमत्यौ (वसुधिती) विद्याधारिके (देवम्) दिव्यगुणं सन्तानम् (इन्द्रम्) अन्नदातारम् (वयोधसम्) जीवनधारकम् (देवी) धर्मात्मा स्त्री (देवम्) धर्मात्मानं पतिम् (अवर्धताम्) (बृहत्या) (छन्दसा) (इन्द्रियम्) इन्द्रेणेश्वरेण सृष्टम् (श्रोत्रम्) शब्दश्रावकम् (इन्द्रे) जीवे (वयः) कमनीयं सुखम् (दधत्) (वसुवने) (वसुधेयस्य) (वीताम्) व्याप्नुतः (यज) ॥३८ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् ! यथा देवी जोष्ट्री वसुधिती स्त्रियौ वयोधसमिन्द्रं देवं देवी देवमिव प्राप्यावर्धतां बृहत्या छन्दसेन्द्रे श्रोत्रमिन्द्रियं वीतां तथा वसुधेयस्य वसुवने वयो दधत् सन् यज ॥३८ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्य ! यथाऽध्यापिकोपदेशिके स्त्रियौ स्वसन्तानानन्याः कन्याः स्त्रियश्च विद्याशिक्षाभ्यां वर्धयतस्तथा स्त्रीपुरुषौ परमप्रीत्या विद्याविचारेण स्वसन्तानान् वर्द्धयेतां स्वयं च वर्धेताम् ॥३८ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जशा अध्यापिका व उपदेशिका आपल्या संतानांना व इतर कन्यांना किंवा स्रियांना विद्या व शिक्षणाने उन्नत करतात तसे स्री-पुरुषांनी परस्पर प्रेमाने पिद्यायुक्त होऊन स्वतः उन्नत व्हावे व आपल्या संतानांना उन्नत करावे.