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दे॒वं ब॒र्हिरिन्द्र॑ꣳ सुदे॒वं दे॒वैर्वी॒रव॑त् स्ती॒र्णं वेद्या॑मवर्द्धयत्। वस्तो॑र्वृ॒तं प्राक्तोर्भृ॒तꣳ रा॒या ब॒र्हिष्म॒तोऽत्य॑गाद् वसु॒वने॑ वसु॒धेय॑स्य वेतु॒ यज॑ ॥१२ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

दे॒वम्। ब॒र्हिः। इन्द्र॑म्। सु॒दे॒वमिति॑ सुऽदे॒वम्। दे॒वैः। वी॒रव॒दिति॑ वी॒रऽव॑त्। स्ती॒र्णम्। वेद्या॑म्। अ॒व॒र्द्ध॒य॒त्। वस्तोः॑। वृ॒तम्। प्र। अ॒क्तोः। भृ॒तम्। रा॒या। ब॒र्हिष्म॑तः। अति॑। अ॒गा॒त्। व॒सु॒वन॒ इति॑ वसु॒ऽवने॑। व॒सु॒धेय॒स्येति॑ वसु॒ऽधेय॑स्य। वे॒तु॒। यज॑ ॥१२ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:28» मन्त्र:12


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् ! जैसे (बर्हिष्मतः) अन्तरिक्ष के साथ सम्बन्ध रखनेवाले वायु जलों को (अति, अगात्) उलङ्घ कर जाता (वसुधेयस्य) जिस में धनों का धारण होता है, उस जगत् के (वसुवने) धनों के सेवने तथा (वेद्याम्) हवन के कुण्ड में (स्तीर्णम्) समिधा और घृतादि से रक्षा करने योग्य (वस्तोः) दिन में (वृतम्) स्वीकार किया (अक्तोः) रात्रि में (भृतम्) धारण किया, हवन किया हुआ द्रव्य नीरोगता को (प्र, अवर्द्धयत्) अच्छे प्रकार बढ़ावे तथा सुख को (वेतु) प्राप्त करे, वैसे (बर्हिः) अन्तरिक्ष के तुल्य (राया) धन के साथ (देवम्) उत्तम गुणवाले (देवैः) विद्वानों के साथ (वीरवत्) वीरजनों के तुल्य वर्त्तमान (इन्द्रम्) उत्तम ऐश्वर्य करनेवाले (सुदेवम्) सुन्दर विद्वान् का (यज) सङ्ग कीजिये ॥१२ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे यजमान वेदि में समिधाओं में सुन्दर प्रकार चयन किये और घृत चढ़ाये हुए अग्नि को बढ़ा, अन्तरिक्षस्थ वायु जल आदि को शुद्ध कर, रोग के निवारण से सब प्राणियों को तृप्त करता है, वैसे ही सज्जन जन धनादि से सब को सुखी करते हैं ॥१२ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(देवम्) दिव्यगुणम् (बर्हिः) अन्तरिक्षमिव। बर्हिरित्यन्तरिक्षना० (निघं०१.३) (इन्द्रम्) परमैश्वर्यकारकम् (सुदेवम्) शोभनं विद्वांसम् (देवैः) विद्वद्भिः (वीरवत्) वीरैस्तुल्यम् (स्तीर्णम्) काष्ठैर्हविषा चाऽऽच्छादनीयम् (वेद्याम्) हवनाधारे कुण्डे (अवर्द्धयत्) वर्द्धयेत् (वस्तोः) दिने (वृतम्) स्वीकृतम् (प्र) (अक्तोः) रात्रौ (भृतम्) धृतम् (राया) धनेन (बर्हिष्मतः) अन्तरिक्षस्य सम्बन्धो विद्यते येषां तान् (अति) उल्लङ्घने (अगात्) गच्छति (वसुवने) धनानां संविभागे (वसुधेयस्य) वसूनि धेयानि यस्मिँस्तस्य जगतः (वेतु) (यज) ॥१२ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् ! यथा बर्हिष्मतोऽत्यगाद् वसुधेयस्य वसुवने वेद्यां स्तीर्णं वस्तोर्वृतमक्तोर्भृतं हुतं द्रव्यं नैरोग्यं प्रावर्द्धयत् सुखं वेतु तथा बर्हिरिव राया सह देवं देवैः सह वीरवद्वर्त्तमानं सुदेवमिन्द्रं यज ॥१२ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा यजमानो वेद्यां समित्सु चितं हुतघृतमग्निं वर्द्धयित्वाऽन्तरिक्षस्थानि वायुजलादीनि शोधयित्वा रोगनिवारणेन सर्वान् प्राणिनः प्रीणयति, तथैव सज्जना जना धनादिना सर्वान् सुखयन्ति ॥१२ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. यजमान जसे वेदीमध्ये चांगल्या समिधा रचून व घृत घालून अग्नी प्रदीप्त करतात व अंतरिक्षातील वायू जल इत्यादी शुद्ध करून रोगनिवारण करतात व सर्व प्राण्यांना तृप्त करतात तसे सज्जन लोक उत्तम गुण व धन इत्यादींनी सर्वांना सुखी करतात.