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य॒ज्ञाय॑ज्ञा वोऽअ॒ग्नये॑ गि॒रागि॑रा च॒ दक्ष॑से। प्रप्र॑ व॒यम॒मृतं॑ जा॒तवे॑दसं प्रि॒यं मि॒त्रं न श॑ꣳसिषम् ॥४२ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

य॒ज्ञाय॒ज्ञेति॑ य॒ज्ञाऽय॑ज्ञा॒। वः॒। अ॒ग्नये॑। गि॒रागि॒रेति॑ गि॒राऽगि॑रा। च॒। दक्ष॑से। प्रप्रेति॒ प्रऽप्र॑। व॒यम्। अ॒मृत॑म्। जा॒तवे॑दस॒मिति॑ जा॒तऽवे॑दसम्। प्रि॒यम्। मि॒त्रम्। न। श॒ꣳसि॒ष॒म् ॥४२ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:27» मन्त्र:42


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे मैं (अग्नये) अग्नि के लिए (च) और (गिरागिरा) वाणी-वाणी से (दक्षसे) बल के अर्थ (यज्ञायज्ञा) यज्ञ-यज्ञ में (वः) तुम लोगों की (प्रप्र, शंसिषम्) प्रशंसा करूँ, (वयम्) हम लोग (जातवेदसम्) ज्ञानी (अमृतम्) आत्मरूप से अविनाशी (प्रियम्) प्रीति के विषय (मित्रम्) मित्र के (न) तुल्य तुम्हारी प्रशंसा करें, वैसे तुम भी आचरण किया करो ॥४२ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य उत्तम शिक्षित वाणी से यज्ञों का अनुष्ठान कर बल बढ़ा और मित्रों के समान विद्वानों का सत्कार करके समागम करते हैं, वे बहुत ज्ञानवाले धनी होते हैं ॥४२ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(यज्ञायज्ञा) यज्ञे यज्ञे। अत्र सुपां सुलुग् [अ०७.१.३९] इत्याकारादेशः। (वः) युष्मान् (अग्नये) पावकाय (गिरागिरा) वाण्या वाण्या (च) (दक्षसे) बलाय (प्रप्र) प्रकर्षेण (वयम्) (अमृतम्) नाशरहितम् (जातवेदसम्) जातविज्ञानम् (प्रियम्) प्रीतिविषयम् (मित्रम्) सखायम् (न) इव (शंसिषम्) प्रशंसेयम् ॥४२ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्याः ! यथाऽहमग्नये गिरागिरा दक्षसे च यज्ञायज्ञा वो युष्मान् प्रप्र शंसिषम्। वयं जातवेदसममृतं प्रियं मित्रं न वो युष्मान् प्रशंसेम तथा यूयमप्याचरत ॥४२ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। ये मनुष्याः सुशिक्षितया वाण्या यज्ञाननुष्ठाय बलं वर्द्धयित्वा मित्रवद्विदुषः सत्कृत्य सङ्गच्छन्ते ते बहुज्ञा धन्याश्च जायन्ते ॥४२ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जी माणसे उत्तम वाणीने यज्ञाचे अनुष्ठान करतात व बल वाढवितात आणि मित्रांप्रमाणे विद्वानांचा सत्कार करून त्यांच्या संगतीत राहतात ती ज्ञानी बनतात.