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न वाऽउ॑ऽए॒तान्म्रि॑यसे॒ न रि॑ष्यसि दे॒वाँ२ऽइदे॑षि प॒थिभिः॑ सु॒गेभिः॑। हरी॑ ते॒ युञ्जा॒ पृष॑तीऽअभूता॒मुपा॑स्थाद् वा॒जी धु॒रि रास॑भस्य ॥४४ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

न। वै। ऊँ॒ इत्यूँ॑। ए॒तत्। म्रि॒य॒से॒। न। रि॒ष्य॒सि॒। दे॒वान्। इत्। ए॒षि। प॒थिऽभिः॑। सु॒गेभिः॑। हरी॒ इति॒ हरी॑। ते॒। युञ्जा॑। पृष॑ती॒ इति॒ पृष॑ती। अ॒भू॒ता॒म्। उप॑। अ॒स्था॒त्। वा॒जी। धु॒रि। रास॑भस्य ॥४४ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:25» मन्त्र:44


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्यों को कैसे रथ-निर्माण करने चाहियें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वान् ! यदि (एतत्) इस पूर्वोक्त विज्ञान को पाते हो तो (न) न तुम (म्रियसे) मरते (न) न (वै) ही (रिष्यसि) मारते हो, किन्तु (सुगेभिः) सुगम (पथिभिः) मार्गों से (देवान्) विद्वानों (इत्) ही को (एषि) प्राप्त होते हो, यदि (ते) आप के (पृषती) स्थूल शरीरयुक्त (युञ्जा) योग करने हारे घोड़े (हरी) पहुँचानेवाले (अभूताम्) हों (उ) तो (वाजी) वेगवान् एक घोड़ा (रासभस्य) अश्वजाति से सम्बन्ध रखनेवाले खिच्चर की (धुरि) धारणा के निमित्त (उप, अस्थात्) उपस्थित हो ॥४४ ॥
भावार्थभाषाः - जैसे विद्या से अच्छे प्रकार जिनका प्रयोग किया, उन पवन जल और अग्नि से युक्त रथ में स्थिर होके मार्गों को सुख से जाते हैं, वैसे ही आत्मज्ञान से अपने स्वरूप को नित्य जान के मरण और हिंसा के डर को छोड़ दिव्य सुखों को प्राप्त हों ॥४४ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्यैः कीदृशानि यानानि कर्त्तव्यानीत्याह ॥

अन्वय:

(न) निषेधे (वै) निश्चयेन (उ) इति वितर्के (एतत्) विज्ञानं प्राप्य (म्रियसे) (न) (रिष्यसि) हन्सि (देवान्) विदुषः (इत्) एव (एषि) (पथिभिः) मार्गैः (सुगेभिः) सुष्ठु गच्छन्ति येषु तैः (हरी) हरणशीलौ (ते) तव (युञ्जा) योजकौ (पृषती) स्थूलौ (अभूताम्) भवेताम् (उप) (अस्थात्) उपतिष्ठेत् (वाजी) वेगवान् (धुरि) धारणे (रासभस्य) अश्वसम्बन्धस्य ॥४४ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् ! यद्येतद्विज्ञानं प्राप्नोषि तर्हि न त्वं म्रियसे न वै रिष्यसि सुगेभिः पथिभिर्देवानिदेषि यदि ते पृषती युञ्जा हरी अभूतामु तर्हि वाजी रासभस्य धुर्य्यपास्थात्॥४४ ॥
भावार्थभाषाः - यथा विद्यया संयुक्तैर्वायुजलाग्निभिर्युक्ते रथे स्थित्वा मार्गान् सुखेन गच्छन्ति, तथैवात्मज्ञानेन स्वस्वरूपं नित्यं बुध्वा मरणहिंसात्रासं विहाय दिव्यानि सुखानि प्राप्नुयुः ॥४४ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जसे वायू, जल, अग्नी यांच्यासंबंधी विद्या शिकून त्यांना रथात (यानात) प्रयुक्त करून मार्ग आक्रमिता येतो तसे मरण व हिंसा यांचे भय सोडून आत्मज्ञानाने आपल्या नित्य स्वरूपाला जाणून दिव्य सुख प्राप्त करावे.