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एक॒स्त्वष्टु॒रश्व॑स्या विश॒स्ता द्वा य॒न्तारा॑ भवत॒स्तथ॑ऽऋ॒तुः। या ते॒ गात्रा॑णामृतु॒था कृ॒णोमि॒ ताता॒ पिण्डा॑नां॒ प्र जु॑होम्य॒ग्नौ ॥४२ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

एकः॑। त्वष्टुः॑। अश्व॑स्य। वि॒श॒स्तेति॑ विऽश॒स्ता। द्वा। य॒न्तारा॑। भ॒व॒तः॒। तथा॑। ऋ॒तुः। या। ते॒। गात्रा॑णाम्। ऋ॒तु॒थेत्यृ॑तु॒ऽथा। कृ॒णोमि॑। तातेति॒ ताता॑। पिण्डा॑नाम्। प्र। जु॒हो॒मि॒। अ॒ग्नौ ॥४२ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:25» मन्त्र:42


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर किस प्रकार पशु सिखाने चाहियें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे (एकः) अकेला (ऋतुः) वसन्त आदि ऋतु (त्वष्टुः) शोभायमान (अश्वस्य) घोड़े का (विशस्ता) विशेष करके रूपादि का भेद करनेवाला होता है वा जो (द्वा) दो (यन्तारा) नियम करनेवाले (भवतः) होते हैं (तथा) वैसे (या) जिन (ते) तुम्हारे (गात्राणाम्) अङ्गों वा (पिण्डानाम्) पिण्डों के (ऋतुथा) ऋतु सम्बन्धी पदार्थों को मैं (कृणोमि) करता हूँ (ताता) उन-उन को (अग्नौ) आग में (प्र, जुहोमि) होमता हूँ ॥४२ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे घोड़ों के सिखानेवाले ऋतु-ऋतु के प्रति घोड़ों को अच्छा सिखलाते हैं, वैसे गुरुजन विद्यार्थियों को क्रिया करना सिखलाते हैं वा जैसे अग्नि में पिण्डों का होम कर पवन की शुद्धि करते हैं, वैसे विद्यारूपी अग्नि में अविद्यारूप भ्रमों को होम के आत्माओं की शुद्धि करते हैं ॥४२ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः कथं पशवः शिक्षणीया इत्याह ॥

अन्वय:

(एकः) असहायः (त्वष्टुः) प्रदीप्तस्य (अश्वस्य) तुरङ्गस्य। अत्र संहितायाम् [अ०६.३.११४] इति दीर्घः। (विशस्ता) विच्छेदकः (द्वा) द्वौ (यन्तारा) नियामकौ (भवतः) (तथा) तेन प्रकारेण (ऋतुः) वसन्तादिः (या) यानि (ते) तव (गात्राणाम्) अङ्गानाम् (ऋतुथा) ऋतोः (कृणोमि) (ताता) तानि तानि (पिण्डानाम्) (प्र) (जुहोमि) (अग्नौ) पावके ॥४२ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्याः ! यथैक ऋतुस्त्वष्टुरश्वस्य विशस्ता भवति, यौ द्वा यन्तारा भवतस्तथा या ते गात्राणां पिण्डानामृतुथा वस्तून्यहं कृणोमि ताताऽग्नौ प्रजुहोमि ॥४२ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथाऽश्वशिक्षकाः प्रत्यृत्वश्वान् सुशिक्षयन्ति, तथा गुरवो विद्यार्थिनां चेष्टाकरणानि शिक्षयन्ति। यथाग्नौ पिण्डान् हुत्वा वायुं शोधयन्ति, तथा विद्याग्नावविद्याभ्रमान् हुत्वाऽऽत्मनः शोधयन्ति ॥४२ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे अश्वशिक्षक निरनिराळ्या ऋतुंमध्ये घोड्यांना उत्तम शिक्षण देतात किंवा प्रशिक्षित करतात तसे गुरुजन विद्यार्थ्यांना निरनिराळ्या क्रिया शिकवितात. जसे अग्नीत तूप, तांदूळ वगैरेंची आहुती देऊन होम करतात व वायू शुद्ध करतात. तसे विद्यारूपी अग्नीत अविद्यारूपी भ्रमाचा हेत करून आत्म्याची शुद्धी करतात.